- अनिल त्रिगुणायत
भारत और चीन द्वारा वास्तविक नियंत्रण रेखा पर 2020 से पहले की स्थिति को फिर से बहाल करने पर सहमत होना दोनों देशों के संबंधों में सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। सीमा से संबंधित दशकों से स्थापित व्यवस्था तथा उनके आधार पर दोनों देशों के बीच विश्वास बढ़ाने के प्रयासों को 2020 में चीन की आक्रामकता से बड़ा झटका लगा था। गलवान में हुई हिंसक झड़प में कई भारतीय और चीनी सैनिकों की मौत भी हुई थी। उस घटना के बाद से सीमा पर तनातनी बढ़ती गयी तथा बड़ी संख्या में दोनों देशों ने अपने सैनिकों को तैनात किया। फिर भी भारत ने अपनी संप्रभुता, संयुक्त राष्ट्र चार्टर आदि को ध्यान में रखते हुए कूटनीति और संवाद का सिलसिला जारी रखा। सैन्य अधिकारियों के अलावा हमारे विदेश मंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार चीन के अपने समकक्ष पदाधिकारियों से मिलते रहे। दोनों देशों के बीच सैनिक अधिकारियों की जो वर्किंग कमिटी है, उसकी कई बैठकें हो चुकी हैं। साथ ही, कूटनीतिक और सैन्य अधिकारियों की संयुक्त समिति की बैठकें भी होती रही हैं। इन प्रयासों से तनाव को समाप्त करने में धीमी गति से प्रगति होती रही। इसका एक कारण यह है कि चीन भारत को एक प्रतिद्वंद्वी की तरह देखता है तथा यह समझता है कि उसे नियंत्रित करने में भारत अमेरिका को सहयोग देता है। पर वास्तव में भारत की नीति स्पष्ट है कि हम किसी भी देश के विरुद्ध नहीं हैं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समावेशी माहौल होना चाहिए तथा स्थापित नियमों का पालन सभी देशों को करना चाहिए।
बीते चार वर्षों में दोनों देशों के शीर्ष नेताओं की मुलाकात के भी प्रयास होते रहे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की अंतिम मुलाकात दक्षिण अफ्रीका में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान हुई थी। हालांकि उस मुलाकात से संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई, पर भारत विभिन्न स्तरों, विशेषकर व्यापार-वाणिज्य के क्षेत्र में, पर अपना प्रयास जारी रखा कि चीन से होने वाले आयात को कम किया जाए या उसे संतुलित किया जाए। साथ ही, सीमा पर तनाव को समाप्त करने के लिए वार्ताओं के दौर चलते रहे। कुछ समय पहले चार स्थानों से दोनों देश अपने सैनिकों को पीछे हटाने पर सहमत हुए थे। वे क्षेत्र गलवान घाटी, पैंगोंग त्सो के उत्तरी एवं दक्षिणी छोर और गोगरा-गर्म झरना हैं। सोमवार को भारतीय विदेश सचिव ने जानकारी दी कि अब शेष दो स्थानों- देपसांग और डेमचोक- से भी वहां तैनात सैनिक टुकड़ियां पीछे हटा दी जायेंगी। हालिया सहमति में यह भी तय हुआ है कि 2020 से पहले गश्त लगाने समेत जो भी व्यवस्थाएं थीं, वे फिर से बहाल हो जायेंगी। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने आशा जतायी है कि 2020 से पहले वास्तविक नियंत्रण रेखा पर जो शांति थी, अब वह फिर से बहाल की जा सकेगी। उल्लेखनीय है कि भारत हमेशा से कहता रहा है कि सीमा तनाव समाप्त करने के लिए आवश्यक है कि अप्रैल 2020 से पहले की यथास्थिति स्थापित हो, जो चीन के रवैये के कारण अस्त-व्यस्त हो गयी थी।
चीन ने भारत की मांग को मान लिया है, जिसे हम परस्पर विश्वास बनाने की पहल या सहमति कह सकते हैं। इस सहमति से इस संभावना को बल मिला है कि रूस के कजान में आयोजित ब्रिक्स समूह के सदस्य देशों के नेताओं की शिखर बैठक के दौरान प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी के बीच द्विपक्षीय बातचीत हो। यदि दोनों नेताओं की बातचीत होती है, तो ऐसी आशा की जा सकती है कि बचे हुए विवादित मामलों को सुलझा लिया जायेगा या उस दिशा में आगे बढ़ने का रास्ता खुलेगा। उल्लेखनीय है कि दोनों देशों के बीच सैन्य अधिकारियों की समिति के अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की भी एक संयुक्त समिति है। इन समितियों तथा नेताओं की बातचीत से यह उम्मीद मजबूत हुई है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा से संबंधित समस्याओं का समाधान निकाल लिया जायेगा।
लेकिन चीन के साथ भारत की मुश्किल केवल सीमा तनाव तक सीमित नहीं है। हमें यह देखना होगा कि अन्य मामलों, विशेष रूप से दक्षिण एशिया, में चीन का व्यवहार कैसा रहता है। अभी तक चीन की नीति भारत को चारों तरफ से घेरने की रही है। हमारे पड़ोस में चीन अपनी कर्ज कूटनीति और अन्य उपायों से अपना प्रभाव बढ़ाने में लंबे समय से लगा हुआ है। मेरा मानना है कि दक्षिण एशिया के साथ-साथ पश्चिम एशिया में भी चीन भारत के लिए एक बड़ी चुनौती है और बना रहेगा। इसके बरक्स हमें अपनी शक्ति और क्षमता को हर तरह से बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना होगा। इसका महत्व गलवान के बाद के दौर में देखा भी गया है कि अगर आप में क्षमता है, इच्छाशक्ति है, तो आपका विरोधी, चाहे वह कितना भी ताकतवर क्यों न हो, आपके पास आकर आपकी बात सुनता है। सीमा को लेकर यथास्थिति बहाल करने का यह समझौता इसका एक बड़ा उदाहरण है।
अब सवाल उठता है कि यहां से आगे का रास्ता क्या होगा। मेरा मानना है कि अगर प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी की बातचीत होती है, तो कुछ अन्य समस्याओं का भी समाधान हो सकता है। अभी दोनों देशों के बीच आवाजाही कम है तथा वीजा के मामले में भी स्थिति सामान्य नहीं है। संभवत: इसमें कुछ प्रगति की अपेक्षा की जा सकती है। जहां तक दोनों देशों के बीच वाणिज्य-व्यापार का मामला है, तो वह उद्योग जगत, वित्तीय संस्थाओं और कारोबारियों पर निर्भर करता है। जहां तक सरकार की बात है, तो उसने वाणिज्य और निवेश के संबंध में स्पष्ट नीतिगत व्यवस्था कर दी है, उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन योजना भी चल रही है, जिसमें विविधता की आवश्यकता है। पर यह एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है। चीन से आयात को एकदम से तो रोका या कम नहीं किया जा सकता है। भारत को विभिन्न क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बनाने, उत्पादन को बढ़ावा देने तथा निर्यात में वृद्धि के लिए कई प्रयास किये जा रहे हैं, लेकिन उनके ठोस परिणाम सामने आने में समय लगेगा। चीन के निवेश को लेकर चर्चाएं चल रही हैं। उसमें यह देखना होता है कि संवेदनशील क्षेत्रों में ऐसे निवेश की अनुमति दी जाए या नहीं। यह हर देश अपने हिसाब से देखता है। बहुत कुछ चीन के रवैये पर भी निर्भर करेगा। जैसा कि जयशंकर कहते हैं कि संबंधों के तीन आधार होते हैं- परस्पर सम्मान, परस्पर हित और परस्पर संवेदना। अगर चीन इन पर ध्यान देता है, तो परस्पर सहयोग बढ़ेंगे।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)
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