कार्य संस्कृति बदलें तो जल्दी हो न्याय

Posted On:- 2024-09-04




प्रमोद भार्गव

जिला न्यायालयों के राश्ट्रीय सम्मेलन के समापन दिवस पर राश्ट्रपति द्रोपदी मुर्म ने लंबित मुकदमों और न्याय में देरी का उल्लेख करते हुए न्यायालयों को ‘तारीख पर तारीख‘ देने और स्थगन की संस्कृति बदलने की नसीहत दी है। इस कारण लंबित मुकादमों की संख्या अदालतों में बढ़ती जाती है।

यह संख्या नीचली अदालतों से लेकर उच्च और सर्वोच्च न्यायालय तक में है। विडंबना है कि इस विशय पर खूब चर्चा होती है, चिंता जताई जाती है, लेकिन समस्या के समाधान के लिए ठोस पहल न सरकार के स्तर पर होती है और न ही न्यायालयों के स्तर पर ? वस्तुतः समस्या यथावत बनी रहती है।

राश्ट्रपति ने अपने उद्बोधन में ष्वेत और काले कोट का हवाला देते हुए कहा कि जिस तरह से सफेद कोट पहने डाॅक्टर को देख रोगी का बीवी बढ़ जाता है, उसी तरह आम आदमी अदालत में काले कोटों को देखकर घबरा जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीष डीवाई चंदचूड़ ने स्पश्टतीकरण दिया कि 28 प्रतिषत जजों और 27 प्रतिषत कर्मचारियों की कमी हैं। त्वरित न्याय के लिए इन कमियों की पूर्ति जरूरी है।     

हमारे यहां संख्या के आदर्श अनुपात में कर्मचारियों की कमी का रोना अक्सर रोया जाता है। ऐसा केवल अदालत में हो,ऐसा नहीं है। पुलिस,शिक्षा और स्वास्थ्य विभागों में भी गुणवत्तापूर्ण सेवाएं उपलब्ध न कराने का यही बहाना है। जजों की कमी कोई नई बात नहीं है, 1987 में विधि आयोग ने हर 10 लाख की आबादी पर जजों की संख्या 10 से बढ़ाकर 50 करने की सिफारिष की थी।

फिलहाल यह संख्या 17 कर दी गई है। अदालतों का संस्थागत ढांचा भी बढ़ाया गया है। उपभोक्ता, परिवार और किशोर न्यायालय अलग से अस्तित्व में आ गए हैं। फिर भी काम संतोषजनक नहीं है। उपभोक्ता अदालतें अपनी कार्य संस्कृति के चलते अब बोझ साबित होने लगी हैं। बावजूद औद्योगिक घरानों के वादियों के लिए पृथक से वाणिज्य न्यायालय बनाने की पैरवी की जा रही है।


अलबत्ता आज भी ब्रिटिष परंपरा के अनुसार अनेक न्यायाधीष ग्रीश्म ऋतु में छुट्टियों पर चले जाते हैं। सरकारी नौकरियों में जब से महिलाओं को 33 प्रतिषत आरक्षण का प्रावधान हुआ है, तब से हरेक विभाग में महिलाकर्मियों की संख्या बढ़ी है। इन महिलाओं को 26 माह के प्रसूति अवकाष के साथ दो बच्चों की 18 साल की उम्र तक परवरिष के लिए दो वर्श का ‘चाइल्ड केयर अवकाष‘ भी दिया जाता है।

अदालत से लेकर अन्य सरकारी विभागों में मामलों के लंबित होने में ये अवकाष एक बड़ा कारण बन रहे हैं। इधर कुछ समय से लोगों के मन में यह भ्रम भी पैठ कर गया है कि न्यायपालिका से डंडा चलवाकर विधायिका और कार्यपालिका से छोटे से छोटा काम भी कराया जा सकता है।

इस कारण न्यायलयों में जनहित याचिकाएं बढ़ रही हैं,जो न्यायालय के बुनियादी कामों को प्रभावित कर रही हैं। जबकि प्रदूषण, यातायात, पर्यावरण और पानी जैसे मुद्दों पर अदालत की दखल के बावजूद इन क्षेत्रों में बेहतर स्थिति नहीं बनी है।     

न्यायिक सिद्धांत का तकाजा तो यही है कि एक तो सजा मिलने से पहले किसी को अपराधी न माना जाए,दूसरे आरोप का सामना कर रहे व्यक्ति का फैसला तय समय-सीमा में हो। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहां ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है। इसकी एक वजह न्यायालय और न्यायाधीशों की कमी जरूर है,लेकिन यह आंशिक सत्य है, पूर्ण नहीं मुकदमों को लंबा खिंचने की एक वजह अदालतों की कार्य-संस्कृति भी है।

सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायमूर्ति राजेंद्रमल लोढ़ा ने कहा भी था ‘न्यायाधीष भले ही निर्धारित दिन ही काम करें, लेकिन यदि वे कभी छुट्टी पर जाएं तो पूर्व सूचना अवष्य दें। ताकि उनकी जगह वैकल्पिक व्यवस्था की जा सके।‘ इस तथ्य से यह बात सिद्ध होती है कि सभी अदालतों के न्यायाधीष बिना किसी पूर्व सूचना के आकस्मिक अवकाष पर चले जाते हैं। गोया, मामले की तारीख आगे बढ़ानी पड़ती है।

इन्हीं न्यायमूर्ति ने कहा था कि ‘जब अस्पताल 365 दिन चल सकते हैं तो अदालतें क्यों नहीं ?‘ यह बेहद सटीक सवाल था। हमारे यहां अस्पताल ही नहीं,राजस्व और पुलिस विभाग के लोग भी लगभग 365 दिन ही काम करते हैं। किसी आपदा के समय इनका काम और बढ़ जाता है। इनके कामों में विधायिका और खबरपालिका के साथ समाज का दबाव भी रहता है। बावजूद ये लोग दिन-रात कानून के पालन के प्रति सजग रहते हैं। जबकि अदालतों पर कोई अप्रत्यक्ष दबाव नहीं होता है।  

यही प्रकृति वकीलों में भी देखने में आती है। हालांकि वकील अपने कनिष्ठ वकील से अकसर इस कमी की वैकल्पिक पूर्ती कर लेते हैं। लेकिन वकील जब प्रकरण का ठीक से अध्ययन नहीं कर पाते अथवा मामले को मजबूती देने के लिए किसी दस्तावेजी साक्ष्य को तलाश रहे होते हैं तो वे बिना किसी ठोस कारण के तारीख आगे खिसकाने की अर्जी लगा देते हैं। विडंबना है कि बिना कोई ठोस पड़ताल किए न्यायाधीष इसे स्वीकार भी कर लेते हैं।

तारीख बढ़ने का आधार बेवजह की हड़तालें और न्यायाधीषों व अधिवक्ताओं के परिजनों की मौंते भी हैं। ऐसे में श्रद्वांजली सभा कर अदालतें कामकाज को स्थगित कर देती हैं। जबकि इनसे बचने की जरूरत है। लिहाजा कड़ाई बरतते हुए कठोर नियम-कायदे बनाने का अधिकतम अंतराल 15 दिन से ज्यादा का न हो,दूसरे अगर किसी मामले का निराकरण समय-सीमा में नहीं हो पा रहा है तो ऐसे मामलों को विषेश प्रकरण की श्रेणी में लाकर उसका निराकरण त्वरित और लगातार सुनवाई की प्रक्रिया के अंतर्गत हो।

ऐसा होता है, तो मामलों को निपटाने में तेजी आ सकती है। ऐसी ही सोच के चलते मुख्यमंत्रियों और न्यायाधीशों के एक सम्मेलन में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एचएल दत्तू ने कहा था, ‘हम पूरी कोशिश करेंगे कि अदालतों में कोई भी मुकदमा पांच साल से ज्यादा न खिंचे।

यह न्याय प्रक्रिया के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण था। लेकिन हाल ही में हमने देखा कि अजमेर की अदालत में 32 साल बाद छह दोषियों को सामूहिक दुष्कर्म के मामले में आजीवन कारावास की सजा हुई है। यानी निचली अदालत में ही एक मामले के निराकरण में 32 साल लग गए। इसके आगे उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।

कई मामलों में गवाहों की अधिक संख्या भी मामले को लंबा खींचने का काम करती है। ग्रामीण परिवेष और बलवों से जुड़े मामलों में ऐसा अक्सर देखने में आता है। इस तरह के एक ही मामले में गवाहों की संख्या 50 तक देखी गई है। जबकि घटना के सत्यापन के लिए दो-तीन गवाह पर्याप्त होते हैं। इतने गवाहों के बयानों में विरोधाभास होना संभव है। इसका लाभ फरियादी की बजाय अपराधी को मिलता है।

इसी तरह चिकित्सा परीक्षण से संबंधित चिकित्सक को अदालत में साक्ष्य के रूप में उपस्थित होने से छूट दी जाए। क्योंकि चिकित्सक गवाही देने से पहले अपनी रिपोर्ट को पढ़ते हैं और फिर उसी इबारत को मुहंजबानी बोलते हैं। लेकिन ज्यादातर चिकित्सक अपनी व्यस्तताओं के चलते पहली तारीख को अदालत में हाजिर नहीं हो पाते, लिहाजा चिकित्सक को साक्ष्य से मुक्त रखना उचित है।

इससे रोगी भी स्वास्थ्य सेवा से वंचित नहीं होंगे और मामला बेवजह लंबित नहीं होगा। एफएसएल रिपोर्ट भी समय से नहीं आने के कारण मामले को लंबा खींचती है। फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगषालाओं की कमी होने के कारण अब तो सामान्य रिपोर्ट आने में भी एक से ड़ेढ़ साल का समय लग जाता है। प्रयोगषालाओं में ईमानदारी नहीं बरतने के कारण संदिग्ध रिपोर्टें भी आ रही हैं। लिहाजा इन रिपोर्टों की क्या वास्तव में जरूरत है,इसकी भी पड़ताल जरूरी है ?

अदालतों में मुकादमों की संख्या बढ़ाने में राज्य सरकारों का रवैया भी जिम्मेवार है। वेतन विंसगतियों को लेकर एक ही प्रकृति के कई मामले ऊपर की अदालतों में विचाराधीन हैं। इनमें से अनेक तो ऐसे प्रकरण हैं, जिनमें सरकारें आदर्ष व पारदर्षी नियोक्ता की षर्तें पूरी नहीं करतीं हैं।

नतीजतन जो वास्तविक हकदार हैं,उन्हें अदालत की षरण में जाना पड़ता है। कई कर्मचारी सेवानिवृति के बाद भी बकाए के भुगतान के लिए अदालतों में जाते हैं। जबकि इन मामलों को कार्यपालिका अपने स्तर पर निपटा सकती है। हालांकि कर्मचारियों से जुड़े मामलों का सीधा संबंध विचाराधीन कैदियों की तदाद बढ़ाने से नहीं है,लेकिन अदालतों में प्रकरणों की संख्या और काम का बोझ बढ़ाने का काम तो ये मामले करते ही हैं।

इसी तरह पंचायत पदाधिकारियों और राजस्व मामलों का निराकरण राजस्व न्यायालयों में न होने के कारण न्यायालयों में प्रकरणों की संख्या बढ़ रही है। जीवन बीमा, दुर्घटना बीमा और बिजली बिलों का विभाग स्तर पर नहीं निपटना भी अदालतों पर बोझ बढ़ा रहे हैं।

कई प्रांतों के भू-राजस्व कानून विसंगतिपूर्ण हैं। इनमें नाजायज कब्जे को वैध ठहराने के उपाय हैं। जबकि जिस व्यक्ति के पास दस्तावेजी साक्ष्य हैं, वह भटकता रहता है। इन विसंगतिपूर्ण धाराओं का विलोपीकरण करके अवैध कब्जों से संबंधित मामलों से निजात पाई जा सकती है। लेकिन नौकरशाही ऐसे कानूनों का वजूद में बनाए रखना चाहती है, क्योंकि इनके बने रहने पर ही इनके रौब-रुतबा और आर्थिक हित सुनिश्चित रहते हैं।



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