दुष्कर्म बनाम कानून दर कानून

Posted On:- 2024-09-06




प्रमोद भार्गव

देष में अनेक कानूनी उपाय और जागरूकता अभियानों के बाबजूद बच्चों एवं महिलाओं से दुश्कर्म की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। दिल्ली में घटित निर्भया, हैदराबाद की महिला पषु चिकित्सक प्रियंका रेड्डी और अब कोलकाता के आरजीकर मेडिकल काॅलेज में एक प्रषिक्षु महिला डाॅक्टर की दुश्कर्म के बाद हत्या के मामलों से यही प्रकट हुआ है कि जब सरकार और पुलिस कानून व्यवस्था के अमल में लाचारी का सामना करती है तो एक नए कथित कठोर कानून ‘अपराजिता महिला-बाल सुरक्षा विधेयक‘ लाकर अपने कत्र्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।

2012 में घटित निर्भया कांड में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार कठोर कानून लायी थी। इसे त्वरित न्याय का पर्याय भी माना गया था, लेकिन जब फांसी की सजा हुई तो उसे देने का कानूनी क्रिया-कर्म करने में पूरे आठ साल लग गए थे।

हैदराबाद के मामले में तो पुलिस ने दुश्कर्म के चार आरोपियों को छह दिसंबर 2019 को घटना स्थल पर ले जाकर मुठभेड़ में मार गिरा दिया था। सुप्रीम कोर्ट के सेवा निवृत जज बीएस सिरपुरकर की अध्यक्षता वाले आयोग ने इस मुठभेड़ को फर्जी बताया था।

अब पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी दुश्कर्म पर सरकार, काॅलेज और पुलिस प्रषासन की कमियों और गड़बड़ियों पर पर्दा डालने के लिए फांसी का कानून ले आईं। आनन-फानन में विधानसभा से पारित इस विधेयक में कहा गया है कि यदि दुश्कर्म के किसी मामले में पीड़िता की माौत हो जाती है, या फिर वह कोमा में चली जाती है तो अपराधी को फांसी दी जाएगी।

इस कानून को लाने से पहले यह भी कहा गया था कि 10 दिन के भीतर दोशी को फांसी दे दी जाएगी। परंतु सामने आए कानून में इस समय सीमा का उल्लेख नहीं है। दरअसल समूची भारतीय न्याय व्यवस्था गढ़े गए ऐसे विकल्प और प्रतिविकल्पों का सामना करते हुए आगे बढ़ती है कि तय समय सीमा में न्याय संभव ही नहीं है।

देष में दुश्कर्म के सर्वाधिक मामलों के परिप्रेक्ष्य में अब्बल रहने वाला मध्य प्रदेष दुश्कर्म पीड़िताओं को त्वरित न्याय और फांसी की सजा का प्रावधान बहुत पहले कर चुका है। मध्य प्रदेष में ऐसा इसलिए संभव हो पाया था, क्योंकि तत्कालीन मुख्यमंत्री षिवराज सिंह चैहान इस तरह के मामलों में त्वरित न्याय की दृश्टि से सामूहिक दायित्व निर्वहन की भावना से काम लिया था।

चैहान ने ही 12 वर्श से कम उम्र की बच्चियों के साथ दुश्कर्म के मामले में फांसी की सजा का प्रावधान किया था। बाद में इस कानून को अन्य राज्यों ने भी अपनाया और अब तो केंद्र सरकार ने भी नाबालिग बालिकाओं के साथ दुष्कर्म व हत्या के अपराध में फांसी की सजा का प्रावधान कर दिया है। बावजूद निचली अदालतों से सजा मिलने के बाद भी ऐसे मामलों में फांसी देने में विलंब हो रहा है।   

दुष्कर्म मामलों में त्वरित न्याय का सिलसिला चल निकलने के बाद भी महिलाओं व बालिकाओं से दुष्कर्म की घटनाएं लगातार सामने आ रही हंै। एक अध्यादेश लाकर 12 साल से कम उम्र की बच्ची के साथ दुष्कर्म के दोषी को मौत की सजा और 16 साल से कम उम्र की किशोरी के साथ बलात्कार एवं हत्या के आरोपी को उम्रकैद की सजा का प्रावधान किया था। इस अध्यादेश ने कानूनी रूप भी ले लिया है।

पॉक्सो कानून की धारा 9 के तहत किए गए प्रावधानों में शामिल हैं कि बच्चों को सेक्स के लिए परिपक्व बनाने के उद्देश्य से उन्हें यदि हार्मोन या कोई रासायनिक पदार्थ दिया जाता है तो इस पदार्थ को देने वाले और उसका भंडारण करने वाले भी अपराध के दायरे में आएंगे। इसी तरह पोर्न सामग्री उपलब्ध कराने वाले को भी दोषी माना गया है। ऐसी सामग्री को न्यायालय में सबूत के रूप में भी पेष किया जा सकता है।

लेकिन देखा गया है कि अधिकतम मामलों में पुलिस ने कामवर्धक दवा और अश्लील सामग्री उपलब्ध कराने वालों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की दरअसल इस तरह की चीजें बच्चों से बाल्यावस्था छीनने का कारण बनते हैं। किशोर और युवा इनसे प्रेरित होकर किसी स्त्री के साथ अनर्थ कर डालते है। साफ है, यह सामग्री लोगों के शरीर ही नहीं आत्मा को भी छलनी कर रही है।

हालांकि पहले कानून से कहीं ज्यादा आदमी को धर्म और समाज का भय था। नैतिक मान-मर्यादाएं कायम थीं। किंतु इन्हें तार-तार करने का काम कुछ ऐसे कानूनों ने भी किया है, जिनके चलते रिश्तों की गरिमा लगभग खत्म हो गई है। नैतिक पतन के कई स्वरूप होते हैं, व्यक्तिगत, संस्थागत और सामूहिक। व्यक्तिगत पतन स्वविवेक और पारिवारिक सलाह से रोका जा सकता है। किंतु संस्थागत और सामूहिक चरित्रहीनता के कारोबार को सरकार और पुलिस ही नियंत्रित कर सकती है। दवा कंपनियां कामोत्तेजना बढ़ाने के जो रसायन और साॅफ्टवेयर कंपनियां पोर्न फिल्में बनाकर जिस तरह से इंटरनेट पर परोस रही हैं, उस पर काबू कानूनी उपायों से ही संभव है।

पोर्न फिल्मों की ही देन है कि जैसे गली-गली में दुश्कर्मी घूम रहे हैं। समाजषास्त्री मानते हैं कि जहां कानूनी प्रावधानों के साथ सामाजिक दबाव भी होता है, वहां बलात्कार जैसी दुश्प्रवृत्तियां कम पनपती है। विडंबना है कि राजनीति का सरोकार समाज-सुधार से दूर हो गया है। उसकी कोशिश सिर्फ सत्ता में बने रहकर केवल उसका दोहन करना भर रह गया है। यही वजह है कि भिन्न विचारधाराओं की राजनीति सत्ता के लिए जिस तरह एकमत हो जाते हैं, उसी तर्ज पर इस दुष्कर्म मामले में भी भिन्न धर्मों के लोग एक हो गए।  


स्त्री उत्पीड़न की ज्यादातर घटनां महानागरों के उन इलाकों में घट रही है, जहां समाज और परिवार से दूर वंचित समाज रह रहा है। ये लोग अकेले गांव में रह रहे परिवार की आजीविका चलाने के लिए षहर मजदूरी करने आते हैं। ऐसे मोबाइल पर उपलब्ध कामोत्तेजक सामग्री इन्हें भड़काने का काम करती है और ये चलती-फिरती बालिकाओं अथवा महिलाओं को बहला-फुसलाकर या उनकी लाचारी का लाभ उठाकर यौन उत्पीड़न कर डालते हैं। हैदराबाद की चिकिस्तक के साथ घटी घटना की पृश्ठभूमि में लाचारी रही है। इनकी स्कूटी कम आबादी वाले इलाके में पंचर हो गई और इंसानियत के दुष्मन मदद के बहाने हैवानियत पर उतर आए। लाचार ने पालतू मवेषियों के इलाज की पढ़ाई तो की थी, लेकिन इंसानियत के भीतर निवास करने वाले जानवरों के न तो वह लक्षण जानती थी और न ही उनका उपचार करना जानती थी। इस घटना की पृश्ठभूमि में फैलता षहरीकरण और परिचितों से बढ़ती दूरियां भी रही हैं। यही वजह रही कि जिन दरिंदों की मति और मानवीयता जब मर रहे थे, तब उन्हें रोकने के लिए न तो कोई निकट मनुश्य था और न ही दरिंदों को ललकारने वाली कोई आवाज उठी ? जबकि रात बहुत गहरी नहीं हुई थी, केवल 9 बजे थे। लेकिन पेट्रोलिंग करने वाली गाड़ियों के सायरन भी इस वक्त मौन थे। कोलकाता की चीखें तो उसी अस्पताल में दब गई, जिसमें वह प्रषिक्षण ले रही थी।


                 अकसर निर्भया या प्रियंका की चीखें जब मौन होकर राख में बदल जाती है तब देश में हर कोने से मोमबत्ती की टिमटिमाती ज्योति में दरिंदों को फांसी की सजा देने की मांग उठने लगती है। किंतु न्यायशास्त्र का सिद्धांत कहता है कि जीवन खत्म करने का अधिकार आसान नहीं होना चाहिए। इसलिए फांसी की सजा जघन्यतम या दुर्लभ मामलों में ही देने की परंपरा है। नतीजतन निचली अदालत से सुनाई गई फांसी की सजा पर अमल भी जल्दी नहीं होता। मप्र में 2018 में रिकॉर्ड 58 दोषियों को दुष्कर्म व हत्या के मामलों में फांसी की सजा सुनाई गई है, लेकिन एक भी सजा पर अमल नहीं हो पाया है। यह मामले उच्च, उच्चतम न्यायालय और राष्ट्रपति के पास दया याचिका के बहाने लंबित हैं। सभी जगह दोशी को क्षमा अथवा सजा कम करने की प्रार्थना से जुड़े आवेदन लगे हुए हैं। इन आवेदनों के निरस्ती के बाद ही दोशी का फांसी के फंदे तक पहुंचना मुमकिन हो पाता है। साफ है, ममता बनर्जी ने मध्यप्रदेष की तरह दुश्कर्म के मामले में कानून कठोर जरूर बना दिया है, लेकिन सजा देने की जो कानूनी संहिता के रूप में दर्ज परतें हैं, वे त्वरत सजा देने में बड़ी बाधा हैं। दुश्कर्म से जुड़े कानूनों को कठोर बना दिए जाने के बावजूद इस परिप्रेक्ष्य में क्रांतिकारी बदलाव नहीं आया है। पुलिस और अदालतों की कार्य-संस्कृति यथावत है। मामले तारीख दर तारीख आगे बढ़ते रहते हैं। कभी गवाह अदालत में पेष नहीं होते है तो कभी फोरेंसिक रिपोर्ट नहीं आने के कारण तारीख बढ़ती रहती है। गोया, इस बाबत न्यायिक व पुलिस कानून में सुधार की बात अर्से से उठ रही हैं, लेकिन हमारी सरकारों की प्राथमिकता में कानूनी सुधार की चिंता है ही नहीं ? लिहाजा विशेष अदालतें गठित होने के भी सार्थक परिणाम नहीं आए हैं।



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