आशीष तिवारी (संपादक)
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वैभव चाहे जितना हो मगर वह त्याग के सामने बौना है : ललितप्रभ महाराज

Posted On:- 2022-07-28




आज प्रवचन ‘योग से कैसे संवारे तन-मन-जीवन’ विषय पर

रायपुर (वीएनएस)। ‘तपस्या तन की साधना है पर वह मन को साधे बिना नहीं हो सकती। लंबी-लंबी तपस्याएं केवल मन के बलबूते हुआ करती हैं। तपस्या ही व्यक्ति के कर्म को काटती है। नए कर्म न बंधें, इसके लिए व्यक्ति को तप चारित्र््य पालन करना पड़ता है पर पुराने कर्म अर्थात् पूर्व निकाचित कर्मों को काटने के लिए केवल तप ही एक मार्ग है। यह जिनशासन की धन्यता है कि इसमें सदियों पूर्व से त्याग-तपस्या की परम्परा रही है। त्यागी-तपस्वियों की जो सेवा-सुश्रुषा करता है वह भी पुण्य का भागी बन जाता है, उसकी सेवा कभी व्यर्थ नहीं जाती। वैभव को भोगने वाले भुला दिए जाते हैं मगर त्याग करने वाले हमेशा याद किए जाते हैं।’

ये प्रेरक उद्गार ललितप्रभ सागर महाराज ने आउटडोर स्टेडियम बूढ़ापारा में जारी दिव्य सत्संग ‘जीने की कला’ के अंतर्गत स्वास्थ्य सप्ताह के चतुर्थ दिवस गुरूवार को ‘तपस्याः मिटाएगी तन-मन की समस्या’ विषय पर व्यक्त किए।

जिंदगी में डरना है तो अशुभ कर्मों से डरो
विषयान्तर्गत संतप्रवर ने आगे कहा कि जिंदगी में डरना है तो अशुभ-अनिष्टकारी कर्मों से डरो क्योंकि कर्मों ने तो भगवान को भी नहीं छोड़ा, कर्म उनके पीछे भी पड़े रहते हैं। हमें हमारे देश की माटी पर गौरव है क्योंकि इस माटी ने जब-जब भी सम्मान-श्रद्धा दी है, तब-तब त्याग और तप को ही सम्मान-श्रद्धा दी है। सिकंदर के पास वैभव ज्यादा रहा और भगवान महावीर के पास त्याग ज्यादा है, यदि दोनों की मूर्ति आपके सामने है तो आगे आकर किसे प्रणाम करने का आपका मन करेगा? वैभव कितना भी महान क्यों न हो पर त्याग के सामने वह हमेशा बौना होता है। इतिहास में वैभव-संपत्ति, सत्ता-सुंदरी के गर्व में जीने वाले हजारों राजा हुए जो काल के गाल में समा गए। लेकिन महावीर और बुद्ध जैसे त्याग-तप व संयम को जीने वालों की दुनिया में आज भी पूजा होती है। दुनिया में आदमी चेहरे से नहीं चरित्र से महान हुआ करता है। महावीर की अहिंसा, बुद्ध की करूणा, राम की मर्यादा और कृष्ण के निष्काम कर्मयोग को जन्म देने का सौभाग्य इसी देश की माटी को है। हमारे देश में हीरे वे नहीं हैं जो जमीन से निकलकर आते हैं, हीरे वे हैं जो तप-त्याग, तपस्या-साधना के प्रताप से महान हुए हैं। लोगों का दिल जीतने में चेहरे की भूमिका केवल 10 परसेंट होती है पर चरित्र ही उसमें 90 परसेंट भूमिका अदा करता है। चेहरे की अवस्था को बदलना हमारे वश में नहीं है पर हमारे जीने का ढंग कैसा हो यह तो हमारे हाथ में अवश्य है।

कर्मों को खपाती और रोगमुक्त करती है तपस्या
संतश्री ने कहा कि हर व्यक्ति को अपने जीवन में त्याग और तपस्या को जरूर जोड़ लेना चाहिए। तपस्या ही आपके पूर्व निकाचित कर्मों को काटती अर्थात् खपाती है और तपस्वी को रोगमुक्त भी करती है। ज्यादा खाने और ज्यादा वैभव में रहने से आदमी ज्यादा बीमार पड़ा करता है। तपस्या आपके तन-मन की समस्या को मिटाती है। हमारे समक्ष ऐसे अनेक आदर्श हैं जिन्होंने रोगग्रस्त होते हुए भी तपस्या करतेे-करते शरीर को ऐसे साधा कि वे रोगमुक्त हो आज भी 90 की उम्र में चंगे हैं और साधनारत हैं। शरीर की स्वस्थता के लिए महात्मा गांधी ने एक समय भोजन का प्रयोग शुरू किया था, वे कहा करते थे कि तप करने से पहले जो कुछ खाया-पिया है वह सब बाहर निकल जाएगा तो शरीर अपने-आप स्वस्थ हो जाएगा। अहिंसा अवतार भगवान श्रीमहावीर ने हमें जीयो और जीने दो का सिद्धांत दिया था, पर आज हमने उसे पलटकर जीमो और जीमणे दो कर दिया है। और इसी परम्परा ने हमारे शरीर में नए-नए और अलग-अलग तरह के रोग पैदा कर दिए हैं। खा-खा के आदमी कितना भी खा ले पर न तो तन तृप्त होता है और न मन। श्रद्धेय संतश्री ने कहा कि हमारा धर्म-कर्म और धर्म पालन केवल मंदिरों, धर्मस्थलों तक ही न हो अपितु धर्म का पालन जीवन के हर कार्यों व कार्यक्रमों में भी हो।

लंबी तपस्या न कर सको तो संकल्पपूर्वक लघु तप अवश्य करो
संतप्रवर ने कहा कि आपको लगता है मैं लंबी-चैड़ी तपस्या की आराधना नहीं कर सकता तो लघु और अत्यंत सहज तप भी हैं, जिन्हें आप संकल्पपूर्वक कर सकते हैं। भगवान ने यह कब कहा कि आप लंबी तपस्या करें। भगवान आदिनाथ तीन उपवास का संकल्प लिया करते थे, वे आहार के लिए रोज निकलते थे पर जब आहार न मिलता तो उनकी तपस्या हो जाया करती थी। संकल्पज्या केवल तीन उपवास की परम्परा प्रारंभ से ही रही है। सूर्योदय के बाद 50 मिनट के भीतर हल्का आहार लेना चाहिए, जिसे नवकारसी कहा गया। दिनभर में सूर्य प्रकाश के उजाले में मनुष्य का नाड़ी व पाचन तंत्र सक्रिय रहता है और रात्रि में वह निष्क्रिय हो जाता है, इसीलिए जैन दर्शन में रात्रि भोजन का निषेध किया गया है। सूर्यास्त के बाद भोजन की मनाही की गई है। तप कभी भी तन के बलबूते नहीं आदमी के मन के बलबूते होता है। तप का निर्णय वहीं कर सकता है, जिसके भीतर त्याग का संकल्प चल रहा होता है। 85 वर्ष की आयु में भी वयोवृद्ध माताजी वर्षी तप करती हैं तो यह मन की मजबूती का ही परिणाम है। जिसके भीतर भोगमय संसार का चिंतन चल रहा है तो वह व्यक्ति तपस्या के महत्व को क्या जानेगा।

उपवास शुरू करने से पहले इन बातों का रखे ख्याल
संतश्री ने बताया कि उपवास शुरू करने से एक दिन पूर्व कुछ आवश्यक बातों के पालन अवश्य किया जाना चाहिए। जब भी उपवास करें, उसके पहले दिन जब शाम का भोजन करें अर्थात् धारणा या उत्तरपारणा करें तो उसमें गरिष्ट भोजन कदापि न करें, हल्का-फुल्का सुपाच्य आहार ही करें। दूसरा उपवास के पूर्व अति भोजन न करें, तीसरा- उपवास के पहले दिन से ही सूर्यास्त के पहले आप आहार का त्याग कर दें।

ये हैं तपस्वी के लिए करणीय कर्म
संतश्री ने बताया कि तपस्या के दौरान तपस्वी को हमेशा धर्म अनुरूप आचरण का पालन करना चाहिए। पहला यह कि तपस्वी अपनी तपस्या के दौरान शील व्रत का पूर्णतः पालन करे, दूसरा- तपस्वी प्रतिदिन दिन में कम से कम तीन घंटे अच्छी किताब का स्वाध्याय जरूर करे। तपस्या का उद्देश्य ही यह है कि तपस्या के माध्यम से मैं अपनी आत्मा को शुद्ध-निर्मल बनाउुं। धर्मशास्त्रों में तप की परिभाषा में कहा गया है कि इच्छा निरोध तपः।

तप दो तरह के हैं बाह्य और अभ्यंतर
तप के प्रकारों का विवरण बताते हुए संतश्री ने बताया कि तपस्या के दो प्रकार के स्वरूप हैं। पहला प्रकार है आंशिक आहार का त्याग और दूसरा प्रकार है- पूर्णकालिक आहार त्याग। भगवान श्रीमहावीर ने हमें तप के दो रूप बताए, एक तन व मन से किए जाने वाले बाह्य तप और दूसरे अन्तरमन से किए जाने वाले अभ्यंतर तप। बाह्य तप के अंतर्गत पहला चरण उणोदरी तप है। भूख से कम खाना इसे उणोदरी तप कहते हैं। दूसरा चरण है- वृत्ति संक्षेप। सामने रखे या लाए गए अनेक व्यंजनों से कम से कम व्यंजनों का आहार करना इसे वृत्ति संक्षेप कहा गया है। तीसरा चरण है- रस परित्याग। तली-चटपटी व मोटापा बढ़ाने वाली चीजों का त्याग करना रस परित्याग है। चैथा चरण है- काय क्लेष। ध्यान साधना के माध्यम से स्वयं को शरीर से मुक्त होने की अनुभूति करना यह काय क्लेष की साधना है। बाह्य तप का अंतिम चरण है- संलीनता। जिसे त्यागमय जीवन जीना भी कहा गया है। इसी प्रकार अभ्यंतर अर्थात् अंतरमन से किए जाने वाले तपों में प्रायश्चित तप अर्थात् भूलों के लिए क्षमायाचना करना, विनय अर्थात् बड़ों के प्रति विनयवान रहना, वैय्यवृत्य अर्थात् संतों-साधकों, रूग्ण, गरीबों की सेवा करना। चैथा- स्वाध्याय अर्थात् रोज दस मिनट धार्मिक-अध्यात्मिक विषयों की किताब का अध्ययन करना, ध्यान साधना करना और पांचवा अभ्यंतर तप है- कायोत्सर्ग। अर्थात् शरीर में पलने वाली आसक्तियों को आत्मा तक आने से ध्यान के माध्यम से रोक लगाना।  
आज के प्रवचन का शुभारंभ श्रद्धेय संतश्री ने राष्ट्र्संत चंद्रप्रभजी द्वारा रचित प्रेरक गीत ‘मुक्ति के प्रेमी हमने कर्मों से लड़ते देखे, मखमल पर सोने वाले कांटों पर चलते देखे ...’ के गायन से श्रद्धालुओं को तप-त्यागमय जीवन जीने की प्रेरणा दी।

ध्यान साधना से अंतरमन को रखें स्वस्थः डॉ. मुनि शांतिप्रियजी
दिव्य सत्संग के पूर्वार्ध में डॉ. मुनिश्री शांतिप्रिय सागरजी ने ध्यान साधना के माध्यम से अपने अंतरमन को स्वस्थ रखने की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा कि इस दुनिया में मनुष्य के पास परम शांति को पाने का एक ही मार्ग है, और वह है ध्यान। भगवान भी वर्धमान से भगवान महावीर बने तो इसके पीछे का कारण उनकी ध्यान साधना ही रही। अज्ञानी व्यक्ति वर्षों की तपस्या से भी जितने कर्मों का नाश नहीं कर पाते, ज्ञानी उससे भी ज्यादा कर्मों का नाश थोड़े समय के लिए ध्यान में होकर कर लिया करता है। ध्यान परम शांति को प्राप्त करने के लिए एक चार्जर की तरह है। जो रोज बीस से तीन मिनट मेडिटेशन करता है, उसे कभी मेडिसिन लेने की जरूरत नहीं पड़ती। अपने मन को बाहरी संसार की व्यर्थ की बातों-विचारों से खाली कर लेने का नाम ही ध्यान है। ध्यान एक तरह से हिलिंग थैरेपी है, जिसके द्वारा हमें कम समय में अधिक परिणाम प्राप्त होते हैं। ध्यान के चार चरण होते हैं- उच्चारण, स्मरण, दर्शन और लीनता।  

तपस्वियों का हुआ बहुमान
धर्मसभा में 16 उपवास की तपस्वी सोनू ओसवाल का ट्र्स्ट मंडल के सदस्यों द्वारा बहुमान किया गया।

इन अतिथियों ने प्रज्जवलित किया ज्ञानदीप
श्रीऋषभदेव मंदिर ट्र्स्ट के अध्यक्ष विजय कांकरिया, कार्यकारी अध्यक्ष अभय भंसाली, ट्र्स्टीगण तिलोकचंद बरड़िया, राजेंद्र गोलछा व उज्जवल झाबक ने संयुक्त जानकारी देते बताया कि गुरूवार की दिव्य सत्संग सभा का शुभारंभ अतिथिगण भूषणलाल जांगड़े, उत्तमचंद भंसाली, श्रीमती पुष्पा देवी कोचर, अरविंद लूनिया, ऋषभ सिंघवी, सिद्धार्थ सिंघवी, रविन्द्र लूनिया द्वारा ज्ञान का दीप प्रज्जवलित कर किया गया। अतिथि सत्कार दिव्य चातुर्मास समिति के स्वागताध्यक्ष कमल भंसाली, पीआरओ समिति से मनोज कोठारी व महावीर तालेड़ा ने किया। आज धर्मसभा में संतश्री के दर्शन-आशीर्वचनों का लाभ लेने नवीन शर्मा, चेंबर अध्यक्ष अमर परवानी, उत्तमचंद गोलछा, जयरामदास कुकरेजा, दोसी का आगमन हुआ। सभी अतिथियों को श्रद्धेय संतश्री के हस्ते ज्ञानपुष्प स्वरूप धार्मिक साहित्य भेंट किये गये। सूचना सत्र का संचालन चातुर्मास समिति के महासचिव पारस पारख ने किया।  
 
आज प्रवचन ‘योग से कैसे संवारे तन-मन-जीवन’ विषय पर
दिव्य चातुर्मास समिति के अध्यक्ष तिलोकचंद बरड़िया, महासचिव पारस पारख, प्रशांत तालेड़ा, कोषाध्यक्ष अमित मुणोत व स्वागताध्यक्ष कमल भंसाली ने बताया कि स्वास्थ्य सप्ताह के पंचम दिवस शुक्रवार 29 जुलाई को सुबह 8:45 बजे से ‘योग से कैसे संवारे तन-मन-जीवन’ विषय पर प्रवचन होगा। श्रीऋषभदेव मंदिर ट्रस्ट एवं दिव्य चातुर्मास समिति ने श्रद्धालुओं को चातुर्मास के सभी कार्यक्रमों व प्रवचन माला में भाग लेने का अनुरोध किया है।



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