रायगढ़ (वीएनएस)। गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है l गुरु को गोविंद से भी ऊंचा कहा गया है। गुरु का आशय जीवन में मौजूद अज्ञानता के अधकार को दूर करने वाला l अर्थात् अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। तमसो मा ज्योतिगर्मय’’ अंधकार की बजाय प्रकाश की ओर ले जाना ही गुरुत्व है। आज वैश्विक स्तर पर मौजूद समस्याओं का कारण है गुरु-शिष्य परंपरा का टूटना। ईश्वर ने जब मनुष्यों के लिये इस सृष्टी की रचना की तब सबसे पहले आकाश, वायु, अग्रि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा, पेड़-पौधे, वनस्पतियां बनाई। परम पिता परमेश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति इस धरती पर मनुष्य ही है। अन्य प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य को बुद्धि विशेष रूप से अधिक दी गई जिससे वह अच्छे-बुरे का चिंतन कर उसमें भेद कर सके। ईश्वर ने मनुष्य को पृथ्वी पर इसलिये ही भेजा है कि वह अपने सदविचार, सदव्यव्हार, सद आचरण और सद आहार से स्वयं को सुखी रख जगत के लिये एक मिशाल बने। लेकिन यह सहज दिखने वाला कार्य ही संसार में सबसे अधिक कठिन है। यह कठिनतम कार्य बड़ी सहजता से अघोरगुरू पीठ ब्रम्हनिष्ठालय बनोरा में दृष्टिगोचर होता है।
बनोरा की यह पावन भूमि संत प्रियदर्शी राम के चरण का एहसास पाते ही आस्था विश्वास और अध्यात्म के त्रिवेणी का अद्भुत उद्गम स्थल बन गई। त्रिवेणी से प्रवाहित विचारों की कल-कल धारा पूरी मानव जाति के लिए मोक्ष का स्त्रोत है l बाबा प्रियदर्शी राम ने बनोरा आश्रम की स्थापना ईमारत को भव्य रूप देने के लिए नही की बल्कि मानवीय मूल्यों एवं संवेदनाओं की नींव को कुछ इस तरह से मजबूत करना था जिससे समाज अघोरपंथ के मूल्यों को अपनाते हुये स्वत: ही मजबूत राष्ट्र निर्माण में अपनी सहभागिता दर्ज करा सकें। व्यक्तियों से समाज और समाज से ही राष्ट्र का निर्माण होता है राष्ट्रनिर्माण के मूल मे मनुष्य ही है। मनुष्य लोभ, माया, ईष्या, द्वेष के दलदल मेें फंसकर स्वंय को शक्तिहीन बना रहा ऐसी परिस्थिति मे राष्ट्र निर्माण संभव नहीं था। अघोरेश्वर महाप्रभु त्रिकालदर्शी थे वे जानते थे यदि मनुष्य ही मजबूत नही होगा तो समाज मजबूत नही हो सकता और इसके बिना राष्ट्र के सबल होने की कल्पना भी व्यर्थ है मनुष्य को मजबूत करने के लिये उसके मानस पटल पर अघोर पंथ की अमिट छाप आवश्यक थी जिसने कि वह स्वंय को बदले और ये बदली हुई व्यवस्थायें स्वत: ही राष्ट्र निर्माण का मार्ग प्रशस्त करें। अघोरश्वर महाप्रभु ने श्मशान से समाज की ओर एक नई अवधारणा का सूत्रपात तो कर दिया लेकिन इसके बाद भी बहुत सारे कार्य किये जाने शेष थे। इन शेष कार्यों को पूरा करने अहम दायित्व अघोरेश्वर ने अपने प्रियतम शिष्य बाबा प्रियदर्शी राम को दिया। विश्व के जाने-माने संत अघोरेश्वर भगवान राम के प्रिय शिष्यों में अनन्यतम प्रिय औघड़ संत प्रियदर्शी के चरणरज से फलिभूत होकर अघोर गुरू पीठ ट्रस्ट बनोरा अध्यात्म उद्गम की पावन गंगा बन गई। संत का जीवन बहती नदी की तरह होता है, जिसका लाभ पूरे मानव जाति को मिलता है। ढाई दशक पहले परम पूज्य प्रियदर्शी राम के कर कमलों द्वारा पावन उद्देयों को लेकर अघोर विचाराधारा का जो बीज अघोर गुरूपीठ बनोरा में रोपा गया था, वह आज पल्लवित होकर न केवल समाज की अंतिम पंक्ति में खड़े बेसहारा लोगों को नि: शुल्क चिकित्सा व शिक्षा सेवा उपलब्ध करा रहा है। अपितु समाज के ही संपन्न वर्ग को जीवन के उद्देश्य कला और संस्कारों के महत्व का भी अनवरत बोध करा रहा है। स्थापना के दौरान भले ही लोगों को इस बात का भान न हो लेकिन आज इस आश्रम के स्थापित उद्देश्य जनजीवन की अदद आवश्यकता बन गए है।
चिकित्सा और शिक्षा जीवन की मूूलभुत आवश्यकता है आज भी दो तिहाई से अधिक आबादी इन मूलभुत सुविधाओं के लिए अपने जीवन में कड़े संघर्ष का सामना कर रही है। विवश लोगों के आंसू पोछने के साधन इस विकसित अर्थव्यवस्था में कम ही है। अघोर गुरूपीठ ट्रस्ट बनोरा ऐसे ही साधन विहिन लोगों को नि:शुल्क स्वास्थ्य शिविरों के जरिए अनवरत् तथा हर संभव चिकित्सा सुविधा मुहैय्या करा रहा है। आधुनिक मनोवृत्तियों से घिरे मानव जाति की परेशानी निरंतर बढ़ रही है। संस्कारों के अभाव से सामाजिक चेतना विलुप्त होने के कगार पर है ऐसी विषम परिस्थितियों में आश्रम से परम पूज्य के निरंतर आर्शीवाचन समाज को दिशा दिखाने में पथ-प्रदर्शक साबित हो रहे है। अघोश्वर भगवान राम ने श्मशान से समाज की ओर अघोसंरचना का सूत्रपात किया। वास्तव में अघोर पंथ आज समाज को अपनी विचाराधारा से आलोकित कर रहा है। अघोर पंथ की विचाराधारा इस सभ्य समाज के लिए अदद आवश्यकता बन गई है। उद्देश्यों को लेकर स्थापना बहुत ही सहज प्रक्रिया है, लेकिन उनका निरंतर पालन विश्व की सबसे कठिन चुनौती है, लेकिन इस आश्रम ने अपने उद्देश्यों का पालन जिस सहजता से किया है। वह अद्भुत और अविस्मरणीय है, राष्ट्रहित को सर्वोपरि समझते हुए मानव मात्र को भाई समझना, नारी के लिए मातृभाव रखना,बालक-बालिकाओं के बहुमुखी विकास के लिए शिक्षोन्मुखी वातावरण निर्मित करना, असहाय व उपेक्षित लोगों की सेवा तथा उनके लिए समाज में मर्यादित भाव जागृत करना, अंधविश्वास, नशाखोरी, तिलक-दहेज, के उन्मूलन हेतु सफल प्रयास करना, मानव धर्म की मूल भावनाओं के विचार विनिमय के लिए मंच प्रदान करना इस संस्था के मूल उद्देश्य है। जिन्हें पूरा करने हेतु विभिन्न गतिविधियां निरंतर संचालित है।
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