पराली जलाने की सजा

Posted On:- 2024-10-15




प्रमोद भार्गव

किसान प्रत्येक विपरीत मौसम में देश की जनता का पेट भरने के लिए अपने श्रम से फसल का उत्पादन करता है, किंतु उसे  पराली जलाने के अपराध में जेल भेजने की धमकियां दी जा रही हैं। वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग ने पराली जलाने की घटनाओं को पूर्णतया रोक लगाने का लक्ष्य निर्धारित किया है।

आयोग ने दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के जिला अधिकारियों को विशेष अधिकार प्रदान किए हैं। कहीं भी पराली जलाई गई तो किसान के विरुद्ध न केवल कानूनी कार्यवाही की जाएगी, बल्कि उसे हिरासत में भी लिया जा सकता है।

यह कार्यवाही राष्ट्रीय राजधानी और आसपास के क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता प्रबंधन अधिनियम 2021 की धारा-14/2 के तहत की जाएगी। 15 सितंबर से 9 अक्टूबर 2024 तक पराली जलाने की 454 घटनाएं घटी हैं, इनमें 267 पंजाब में और 187 हरियाणा में दर्ज की गई हैं। जबकि पराली से ज्यादा प्रदूषण दिल्ली और समूचे एनसीआर में कारों और दो पहिया वाहनों से होता है।

 मौसम के करवट लेते ही देष की राजधानी दिल्ली में वायु प्रदूशण का हल्ला षुरू हो जाता है। इस प्रदूशण के कारण तो कई हैं, लेकिन प्रमुख कारण पराली जलाना बताया जाता रहा है। लेकिन  नए षोधों से पता चला है कि पाकिस्तान में बड़ी मात्रा में पराली जलाई जाती है, जिसके लिए हमारे किसान दोशी नहीं हैं।

पंजाब रिमोट सेंसिंग सेंटर (पीआरएससी) द्वारा लिए उपग्रह चित्रों से पता चला है कि सीमा पार का धुआं भी दिल्ली की आबो-हवा खराब कर रहा है। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने पंजाब के खेतों में जलती पराली की तस्वीरें जारी करके यह जताने की कोशिश की थी कि वायु प्रदूषण के लिए पराली ही दोषी है।

इसके जवाब में पंजाब सरकार का तर्क था कि यह धुआं सिर्फ पराली का नहीं है, इसमें कचरा घरों, समसान और भोजन पकाने का धुआं भी शामिल है। फसलों के अवषेश के रूप में निकलने वाली पराली को हरियाणा, पंजाब, राजस्थान व पष्चिमी उत्तर प्रदेष में बड़ी मात्रा में जलाया जाता है। इससे दिल्ली की आवोहवा में धुंध छा जाती है। हर साल सितंबर-अक्टूबर-नबंवर माह में फसल कटने के बाद षेश बचे दंठलों को खेतों में ही जलाया जाता है।  इनसे निकलने वाला धुआं वायु को प्रदूशित करता है।

वायु गुणवत्ता सूचकांक के आंकड़े बताते हैं कि मानसून खत्म होते ही दिल्ली में वायु प्रदूशण तेजी से बढ़ने लगता है। सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि देष में हर साल 70 करोड़ टन पराली निकलती है।

इसमें से 9 करोड़ टन खेतों में ही छोड़नी पड़ती है। हालांकि 31 प्रतिषत पराली का उपयोग चारे के रूप में, 19 प्रतिषत जैविक ऊर्जा के रूप में और 15 प्रतिषत पराली खाद बनाने के रूप में इस्तेमाल कर ली जाती है। बावजूद 31 प्रतिषत बची पराली को खेत में ही जलाना पड़ती है, जिसे वायू प्रदूशण का बड़ा कारण एजेंसियां जताती हैं।

अकेले पंजाब में इस बार 15 लाख मीट्रिक टन पराली खेतों में जलाने की आशंका है। एक हेक्टेयर धान के खेत में औसतन 3 से 5 मीट्रिक टन पराली निकलती है। पंजाब में इस बार 30 लाख 10 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि में धान रोपी गई है। फसल आने के बाद इसमें से पांच लाख मीट्रिक  टन पराली का इस्तेमाल चारा, खाद एवं उद्योगों में ईंधन के रूप में हो जाएगा।

उपयोग की जाने वाली पराली की यह मात्रा महज 20 प्रतिशत है, जबकि 80 प्रतिशत पराली का कोई उपयोग नहीं है। इसलिए किसानों के पास इसे सरलता से नष्ट करने का  जलाने के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीें है। केंद्र व राज्य सरकारें भी पराली नश्ट करने की सस्ती व सुरक्षित तकनीक ईजाद करने में नाकाम रही हैं। ऐसी कोई तकनीक नहीं होने के कारण किसान को खेत में ही दंठल जलाने पड़ते है।

जलाने की उसे जल्दी इसलिए भी रहती है, क्योंकि खाली हुए खेत में गेहूं और आलू की फसल बोनी होती है। इस लिहाज से जरूरी है कि राज्य सरकारें पराली से जैविक खाद बनाने के संयंत्र जगह-जगह लगाएं और रासायनिक खाद के उपयोग को प्रतिबंधित करें। हालांकि कृषि वैज्ञानिक पराली को कुतरकर किसानों को जैविक खाद बनाने की सलाह देते हैं, किंतु यह विधि बहुत महंगी है।

कर्ज में डूबे देश के किसान से यह उम्मीद करना नाइंसाफी है। हालांकि कुछ छोटे किसान वैकल्पिक तरीका अपनाते हुए धान को काटने से पहले ही आलू जैसी फसलें बो देते हैं। इसका फायदा यह होता है कि पराली  स्वाभाविक रूप में जैविक खाद में बदल जाती है।

यह सही है कि पराली जलाने के कई नुकसान हैं। वायु प्रदूशण तो इतना होता है कि दिल्ली भी उसकी चपेट में आ जाती है। अलबत्ता एक एकड़ धान की पराली से जो आठ किलो नाइट्रोजन, पोटाष सल्फर और करीब 3 किलो फास्फोरस मिलती है, वह पोशक तत्व जलने से नश्ट हो जाते हैं। आग की वजह से धरती का तापमान बढ़ता है। इस कारण खेती के लिए लाभदायी सूक्ष्मजीव भी मर जाते हैं। इस लिहाज से पराली जलाने का सबसे ज्यादा नुकसान किसान को ही उठाना पड़ता है। इसलिए यह जरूरी है कि पराली के उपयोग के भरपूर उपाय किए जाएं। बावजूद ऐसे कई कारण हैं, जो वायु को प्रदूषित करते है।      

भारत में औद्योगीकरण की रफ्तार भूमण्डलीकरण के बाद तेज हुई है। एक तरफ प्राकृतिक संपदा का दोहन बढ़ा तो दूसरी तरफ औद्योगिक कचरे में बेतहाषा बढ़ोत्तरी हुई। लिहाजा दिल्ली में जब षीत ऋृतु दस्तक देती है  तो वायुमण्डल में आर्द्रता छा जाती है। यह नमी धूल और धुएं के बारीक कणों को वायुमण्डल में विलय होने से रोक देती है। नतीजतन दिल्ली के ऊपर एकाएक कोहरा आच्छादित हो जाता है।

वातावरण का यह निर्माण क्यों होता है,  मौसम विज्ञानियों के पास इसका कोई स्पश्ट व तार्किक उत्तर नहीं है। वे इसकी तात्कालिक वजह पंजाब एवं हरियाणा के खेतों में जलाई जा रही पराली बता देते हैं। यदि वास्तव में इसी आग से निकला धुआं दिल्ली में छाए कोहरे का कारण होता तो यह स्थिति चंडीगढ़, अमृतसर, लुधियाना और जालंधर जैसे बड़े षहरों में भी दिखनी चाहिए थी ? लेकिन नहीं दिखती।

अलबत्ता इसकी मुख्य वजह हवा में लगातार प्रदूशक तत्वों का बढ़ना है। दरअसल मौसम गरम होने पर जो धूल और धुंए के कण आसमान में कुछ ऊपर उठ जाते हैं, वे सर्दी बढ़ने के साथ-साथ नीचे खिसक आते हैं। दिल्ली में बढ़ते वाहन और उनके सह उत्पाद प्रदूशित धुंआ और सड़क से उड़ती धुल अंधियारे की इस परत को और गहरा बना देते हैं। दिल्ली में जब मानक पैमाने से ढाई गुना ज्यादा प्रदूशक तत्वों की संख्या बढ़ जाती है, तब लोगों में गला, फेफड़ें और आंखों की तकलीफ बढ़ जाती हैं। कई लोग मानसिक अवसाद की गिरफ्त में भी आ जाते हैं।

हालांकि हवा में घुलता जहर महानगरों में ही नहीं छोटे नगरों में भी प्रदूशण का सबब बन रहा है। कार-बाजार ने इसे भयावह बनाया है। यही कारण है कि लखनऊ, कानपुर, अमृतसर, इंदौर और अहमदाबाद जैसे षहरों में प्रदूशण खतरनाक स्तर की सीमा लांघने को तत्पर है। उद्योगों से धुंआ उगलने और खेतों में बड़े पैमाने पर औद्योगिक व इलेक्ट्रोनिक कचरा जलाने से भी दिल्ली की हवा में जहरीले तत्वों की सघनता बढ़ी है। इस कारण दिल्ली दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शामिल हो गया है।

राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने पराली जलाने पर पाबंदी लगा दी है। पंजाब और हरियाणा सरकारों ने पराली जलाने पर जुर्माने का प्रावधान भी किया है। इससे यह उम्मीद बंधी थी कि पराली जलाने की घटनाएं कम होंगी, लेकिन नहीं हुईं।

एनजीटी ने इस पर नियंत्रण को लेकर नाराजी जताते हुए कहा है कि जिस तरह से अपराधों को रोकने के लिए कानून लागू किए हैं, उसी तरह इस जवाबदेही के लिए अधिकारियों पर जुम्मेबारी डाली जाए। दंडात्मक कार्यवाही करने की रणनीति भी अपनाई जाए। लेकिन एनजीटी का यह निर्देश व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि जब पिछले 500 साल से फसलों के अवशेषों को जलाए बिना नष्ट करने की कोई तकनीक संपूर्ण रूप में सामने नहीं आई है तो फिर किसान या अधिकारियों को एकाएक दोषी कैसे ठहराया जा सकता है ? वैसे पराली जलाने की समस्या केवल भारत में ही नहीं है,  दुनिया के अनेक देष इससे दो-चार हो रहे हैं। चीन में तो यह एक बड़ी समस्या है ही अमेरिका और फ्रांस भी इससे जूझ रहे हैं। पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका भी फसल के अवशेषों को नष्ट करने का यही उपाय अपनाते हैं। ऐसे में पराली जलाने से भारत के कुल राज्य ही क्यों प्रदूषित होते हैं ? 



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