यह सच्चाई कल्पना से परे लगती है कि विद्या के मंदिर में पढ़ाई जा रही किताबें हिंसा की रक्त रंजित इबारत भी लिखेंगी ? लेकिन हैरत में डालने वाली बात है कि यह हृदयविदारक घटना एक हकीकत बन चुकी है। देश के महानगर और शैक्षिक गुणवत्ता की दृष्टि से महत्वपूर्ण माने जाने वाले महानगर दिल्ली, गुड़गांव, हैदराबाद और बैंग्लौर में तो इस तरह की घटनाएं देखने में आती रही हैं, लेकिन अब मध्यप्रदेष के छतरपुर के एक सरकारी विद्यालय में 12वीं के नाबालिग छात्र ने प्राचार्य की कट्टेे से गोली मारकर हत्या कर दी। प्राचार्य सुरेंद्र कुमार सक्सेना का दोश इतना भर था कि उन्होंने इस छात्र को नियमित स्कूल नहीं आने पर फटकार लगाई थी। इससे छात्र इतना नाराज हुआ कि उसने अगले दिन प्राचार्य के सिर में गोली मार दी। पुलिस ने ढिलापुर ग्राम के इस छात्र को हिरासत में ले लिया है। नषे का आदि यह छात्र छात्राओं के साथ भी छेड़छाड़ करता था। षिक्षकों को इसने धमकाने की उद्दंडता कई मर्तबा बरती थी। अतएव छात्र की दहषत इतनी रही कि इस वरदात के बाद भी कई षिक्षक उसका नाम लेने से बचते रहे। इस हत्या के बाद सवाल उठ रहा है कि छात्र के पास अवैध माना जाने वाला कट्टा कहां से आया ? दरअसल आजकल समूचा बुंदेलखंड मप्र और उप्र में अवैध हथियारों के निर्माण और उनके क्रय-विक्रय का अड्डा बना हुआ है।
विद्यालयों में छात्र हिंसा से जुड़ी ऐसी घटनाएं पहले अमेरिका जैसे विकसित देशों में ही देखने में आती थीं, लेकिन अब भारत जैसे विकासशील देशों में भी क्रूरता का यह सिलसिला चल पड़ा है। हालांकि भारत का समाज अमेरिकी समाज की तरह आधुनिक नहीं है कि जहां पिस्तौल अथवा चाकू जैसे हथियार रखने की छूट छात्रों को हो। अमेरिका में तो ऐसी विकृत संस्कृति पनप चुकी है, जहां अकेलेपन के शिकार एवं मां-बाप के लाड-प्यार से उपेक्षित बच्चें घर, मोहल्ले और संस्थाओं में जब-तब पिस्तौल चला दिया करते हैं। पाठशालाओं में घट रहीं ऐसी घटनाएं उस बर्बर, वीभत्स और निरंकुश संस्कृति की देन हैं, जिसने नैतिक एवं मानवीय मूल्यों को रौंदकर बेतहाशा दौलत कमाई और फिर नवधनाढ्यों के वर्ग में शामिल हो गया। और अब आपराधिक कृत्यों को अंजाम देकर जिनका अहंकार तुष्ट हो रहा है। इस तरह की पनप रही हिंसक मानसिकता के लिए हमारी कानून व्यवस्था के साथ परिवार भी दोषी है। क्योंकि धन के बूते अभिभावक ऐन-केन-प्रकारेण बच्चों को कानूनी शिकंजे से बचा लेते हैं।
आज अभिभावकों की अतिरिक्त व्यस्तता और एकांगिकता जहां बच्चों के मनोवेगों की पड़ताल नहीं करने के लिए दोषी है, वहीं विद्यालय नैतिक और संवेदनशील मूल्य बच्चों में रोपने में सर्वथा चूक रहे हैं। छात्रों पर विज्ञान, गणित और वाणिज्य विषयों की शिक्षा का बेवजह दबाव भी बर्बर मानसिकता विकसित करने के लिए दोषी हैं। आज साहित्यि शिक्षा पाठ्यक्रमों में कम से कमतर होती जा रही है, जबकि साहित्य और समाजशास्त्र ऐेसे विषय हैं जो समाज से जुड़े सभी विषयों और पहलुओं का वास्तविक यथार्थ प्रकट कर बाल-मनों में संवेदनशीलता का स्वाभाविक सृजन करने के साथ सामाजिक विषंगतियों से परिचत कराते हैं। इससे हृदय की जटिलता टूटती है और सामाजिक विषंगतियों को दूर करने के कोमल भाव बालमनों में अंकुरित होते हैं। महान और अपने-अपने क्षेत्रों में सफल व्यक्तियों की जीवन-गाथाएं (जीवनियां) व्यक्ति में संघर्ष के लिए जीवटता प्रदान करती हैं। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहां ऐसा कोई पाठ्यक्रम पाठशालाओं में नहीं है, जिसमें कामयाब व्यक्ति की जीवनी पढ़ाई जाती हो ? जीवन-गाथाओं में जटिल परिस्थितियों से जूझने एवं उलझनों से मुक्त होने के सरल, कारगर और मनोवैज्ञानिक उपाय भी होते हैं।
भूमण्डलीकरण के आर्थिक उदारवादी दौर में हम बच्चों को क्यों नहीं पढ़ाते कि संचार तकनीक और ईंधन रसायनों का जाल बिछाए जाने की बुनियाद रखने वाले धीरूभाई अंबानी कम पढ़े लिखे एवं साधारण व्यक्ति थे। वे पेट्रोल पंप पर वाहनों में पेट्रोल डालने का मामूली काम करते थे। इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने अपने व्यवसाय की शुरूआत मात्र दस हजार रूपए की छोटी-सी रकम से की थी और आज अपनी व्यावसायिक दक्षता के चलते अरबों का कारोबार कर रहे हैं। दुनिया में कम्प्यूटर के सबसे बड़े उद्योगपति बिल गेट्स पढ़ने में औसत दर्जे के छात्र थे ? कामयाब लोगों के शुरूआती संघर्ष को पाठ्यक्रमों में स्थान दिया जाए तो पढ़ाई में औसत हैसियत रखने वाले छात्र भी हीनता-बोध की उन ग्रंथियों से मुक्त रहेंगे जो अवचेतन में क्षोभ, अवसाद और संवेदनहीनता के बीज अनजाने में ही बो देती हैं। नतीजतन छात्र तनाव व अवसाद के दौर में विवेक खोकर हत्या, आत्महत्या अथवा बलात्कार जैसे गंभीर आपराधिक कारनामे कर डालते हैं। वैसे भी सफल एवं भिन्न पहचान बनाने के लिए व्यक्तित्व में दृढ़, इच्छाशक्ति और कठोर परिश्रम की जरूरत होती है, जिसका पाठ केवल कामयाब लोगों की जीवनियों से ही सीखा जा सकता है।
शिक्षा को व्यवसाय का दर्जा देकर निजी क्षेत्र के हवाले छोड़कर हमने बड़ी भूल की है। ये प्रयास शिक्षा में समानता के लिहाज से बेमानी हैं। क्योंकि ऐसे ही विरोधाभासी व एकांगी प्रयासों से समाज में आर्थिक विषमता बढ़ी है। यदि ऐसे प्रयासों को और बढ़ावा दिया गया तो विषमता की यह खाई और बढ़ेगी ? जबकि इस खाई को पाटने की जरूरत है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो शिक्षा केवल धन से हासिल करने का हथियार रह जाएगी ? जिसके परिणाम कालांतर में और भी घातक व विस्फोटक होंगे। समाज में सवर्ण पिछड़े, आदिवासी व दलितों के बीच आर्थिक व सामाजिक मतभेद बढ़ेंगे जो वर्ग संघर्ष के हालातों को आक्रामक व हिंसक बनाएंगे। यदि शिक्षा के समान अवसर बिना किसी जातीय, वर्गीय व आर्थिक भेद के सर्वसुलभ होते हैं तो छात्रों में नैतिक मूल्यों के प्रति चेतना, संवेदनशीलता और पारस्परिक सहयोग व समर्पण वाले सहअस्तित्व का बोध पनपेगा, जो सामाजिक न्याय और सामाजिक संरचना को स्थिर बनाएगा।
वैसे मनोवैज्ञानिकों की मानें तो आमतौर से बच्चे आक्रामकता और हिंसा से दूर रहने की कोशिश करते हैं। लेकिन घरों में छोटे पर्दे और मुट्ठी में मोबाइल पर परोसी जा रही हिंसा और सनसनी फैलाने वाले कार्यक्रम इतने असरकारी साबित हो रहे हैं कि हिंसा का उत्तेजक वातावरण जहां-तहां विकृत रूप लेने लगा है। यह बालमनों में संवेदनहीनता का बीजारोपण कर रहा है। मासूम और बौने से लगने वाले कार्टून चरित्र भी पर्दे पर बंदूक थामे दिखाई देते हैं, जो बच्चों में आक्रोश पैदा करने का काम करते हैं। अतएव स्क्रीन पर निरंतर दिखाई जा रही हिंसक वारदातों के महिमामंडन पर अंकुश लगाया जाना जरूरी है। यदि बच्चों के खिलौनों का समाजशास्त्रीय एवं मनोवैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया जाए तो हम पाएंगे की हथियार और हिंसा का बचपन में अनाधिकृत प्रवेश हो चुका है।
सबसे ज्यादा नकारात्मक बात है कि हमने न तो पारंपरिक ज्ञान-विज्ञान को उपयोगी माना और न ही शिक्षा के सिलसिले में महात्मा गांधी व गिजुभाई बधेका जैसे शिक्षाशास्त्रियों के मूल्यों को तरजीह दी। शिक्षा आयोगों की नसीहतों को भी आज तक अमल में नहीं लाया गया। अभी भी यदि हम वैश्विक संस्कृति और अंग्रेजी शिक्षा के मोह से उन्मुक्त नहीं होते हैं तो शिक्षा परिसरों में हिंसक घटनाओं में और इजाफा होगा ? इनसे निजात पाना है तो जरूरी है कि तनावपूर्ण स्थितियों में सामंजस्य बिठाने, महत्वाकांक्षा को तुष्ट करने और चुनौतियों से सामना करने के कौशल को शैक्षिक पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। गांधी व गिजुभाई के सिद्धांतों को शिक्षा का मानक माना जाए। गुरुजन भी अकादमिक उपलब्धियों के साथ बाल मनोविज्ञान का पाठ पढ़ें ? इसे भक्त कवि सूरदास की कृष्ण की बाल लीलाओं से भी सीखा जा सकता है। जिससे शिक्षक बालकों के चेहरे पर उभरने वाले भावों से अंतर्मन खंगालने में दक्ष हो सकें ?
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