दागियों की मददगार साबित होती कानूनी विसंगतियां

Posted On:- 2025-01-27




प्रमोद भार्गव

दिल्ली दंगों के आरोपी ताहिर हुसैन जेल में बंद हैं। बावजूद वे दिल्ली विधानसभा के चुनाव में एआइएमआइएस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। चुनाव प्रचार के लिए उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय से जमानत मांगी थी। किंतु दो न्यायाधीषों की पीठ ने विभाजित फैसला दिया। न्यायामूर्ति पंकज मित्तल ने ताहिर की याचिका खारिज करते हुए कहा कि ऐसे लोगों के चुनाव लड़ने पर रोक लगनी चाहिए। जबकि दूसरे न्यायामूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्ला ने ताहिर को 4 फरवरी 2025 की दोपहर तक अंतरिम जमानत देने का निर्णय सुनाया। दो न्यायाधीषों की पीठ की मतभिन्नता का निर्णय आने के कारण अब ताहिर की अंतरिम जमानत पर बड़ी पीठ फैसला करेगी। इसके पहले दिल्ली उच्च न्यायालय भी ताहिर की जमानत अर्जी खारिज कर चुकी है। हालांकि इसी न्यायालय ने ताहिर को नामांकन पर्चा भरने के लिए कस्टडी पैरोल दी थी। इस अर्जी के खारिज होने के बाद ही शीर्ष न्यायालय में अर्जी लगाई गई थी। याद रहे दिल्ली में 5 फरवरी को मतदान होना हैं और 8 फरवरी को मतगणना होगी।

                अर्से से चुनाव सुधार के लिए ऐसी विसंगतियों को दूर करने की मांग उठ रही है, जिनके चलते दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों के आरोपियों को चुनाव लड़ने का अधिकार मिला हुआ है। दरअसल दागियों को चुनाव लड़ने से तब तक बाधित नहीं किया जा सकता है। तब तक वर्तमान विरोधाभासी कानूनों में परिवर्तन नहीं कर दिया जाता। इस मकसद पूर्ति के लिए केंद्र सरकार को पहल करके संसद के दोनों सदनों से संशोधन विधेयक पारित कराने होंगे। वर्तमान में दलों के बीच जबरदस्त असहमति और टकराव है, अतएव ऐसा संभव होना कठिन है। विपक्ष के नेता राहुल गांधी ऐसे किसी बदलाव को संविधान का खात्मा करने का बहाना करते हुए संसद में हल्ला मचाएंगे और अन्य जिन विपक्षी दलों की बुनियाद दागियों पर टिकी है, वह उनका समर्थन करेंगे। हालांकि भाजपा और उनके सहयोगी दलों में भी दागियों की संख्या कम नहीं है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यह अपेक्षा इसलिए की जा सकती हैं, क्योंकि एक तो वे चुनाव सुधार की मुखर पैरवी करते रहे हैं, दूसरे जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 को खत्म करने का साहस दिखा चुके हैं। दरअसल जेल में बंद और जमानत पर छूटे दागियों को इसलिए राहत मिल जाती है, क्योंकि कानून की निगाह में आरोपी को दोष सिद्ध नहीं हो जाने तक निर्दोष माना जाता है। इसी आधार पर बंदी और दो साल से कम की सजा पाए लोगों को चुनाव में हस्तक्षेप के अधिकार मिले हुए हैं। देश में जाति और संप्रदाय आधारित विडंबनाएं इस हद तक हैं कि अनेक दागी चुनाव जीत भी जाते हैं। यहां तक की राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत जेल में बंद खालिस्तान समर्थक अमृतपाल सिंह ने पंजाब की खडूर साहिब लोकसभा सीट से विजय हासिल कर ली थी। इसी तरह टेरर फंडिग में तिहार जेज में बंद इंजीनियर रषीद ने जम्मू-कष्मीर की बारामूला विधानसभा सीट से चुनाव जीत लिया था। इस परिप्रेक्ष्य में विचारणीय बिंदू यह भी है कि हत्या, बलात्कार, आतंक, अलगाव और हिंसा भड़काने वाले लोग यदि जीतकर संसद और विधानसभा में पहुंच जाते हैं, तब क्या इन सदनों की गरिमा या संविधान की महिमा बढ़ जाती है ? यदि नहीं बढ़ती तो राजनैतिक दल इन्हें टिकट क्यों देजे हैं ? नागरिक शुचिता की अपेक्षा जहां मतदाता से की जाती है, वहीं संवैधानिक मर्यादा का पालन करने का दायित्व दल और निर्वाचित प्रतिनिधियों का है।

                 

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 10 जुलाई 2013 को दिए एक फैसले के अनुसार किसी आपराधिक मामले में 2 वर्श की सजा पाए दोषी सांसद, विधायक व अन्य जनप्रतिनिधियों के पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं है। जिस तारीख से सजा सुनाई गई है, उसी दिन से माननीयों की सदस्यता निरस्त मानी जाएगी। अदालत ने इस फैसले में जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को रदद् कर दिया था। यह धारा दागी नेताओं को मुकदमें लंबित रहते हुए भी पद पर बने रहने की छूट देती थी, यह फैसला 2006 में दाखिल वकील लिली थाॅमस की याचिका पर दिया गया था। किंतु इस फैसले के विरुद्ध केंद्र सरकार ने संसद में सर्वसम्मति से संषोधन विधेयक लाकर षीर्श अदालत के फैसले को चुनौती दी थी। इस बिल में धारा 8 की उपधारा 4 में एक प्रावधान जोड़ा, ताकि दागी नेताओं की कुर्सी बची रहे और वे सदन की कार्यवाही में भागीदारी करते रहें। किंतु अदालत ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि उपधारा 4 भेदभाव पूर्ण है, क्योंकि यह दोशी ठहराये गए आमजन को तो चुनाव लड़ने से रोकती है, लेकिन जनप्रतिनिधि को सुरक्षा मुहैया कराती है।

 

सर्वोच्च न्यायालय ने दागियों का महत्व राजनीति से समाप्त की दृश्टि से महज जन प्रतिनिधत्व कानून की धारा 8 ;4द्ध को खारिज किया था। यह एक ऐसी विरोधाभासी धारा थी, जो पक्षपात बरतते हुए दोशियों को दोहरे दृश्टिकोण से परिभाशित करती थी। यह संहिता एक ओर तो उस आम आदमी को चुनाव लड़ने से रोकती है, जिसे दो साल या इससे अधिक की सजा हुई हो और दूसरी तरफ आपराधिक दोशी करार दिए गए नेताओं को पद पर बने रहने की छूट देती थी। इस भेद को खत्म करना, न्यायिक समानता के लिए जरुरी था, जिससे संवैधानिक मर्यादा का पालन हो और देष के हरेक नागरिक को समानता के अधिकार मिलें। किंतु संशोधन के जरिए अदालत के 10 जुलाई के फैसले को बदलने की भावना जताकर सभी राजनीतिक दलों ने साफ कर दिया था वे न्याय के क्षेत्र में समानता के हकदार नहीं हैं।

                जनप्रतिनिधि कानून के विपरीत संविधान के अनुच्छेद 173 और 326 में प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा दोशी-करार दिए लोगों के नाम मतदाता सूची में षामिल नहीं किए जा सकते हैं। यहां प्रष्न खड़ा होता है कि जब संविधान के अनुसार कोई अपराधी मतदाता भी नहीं बन सकता तो वह जनप्रतिनिधि बनने के नजरिए से निर्वाचन प्रक्रिया में भागीदारी कैसे कर सकता है ? संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत यह दोहरा मापदंड समानता के अधिकार का उल्लंघन है। समान न्यायिक व्यवहार की इस मांग को जनहित याचिका के जरिए लिली थाॅमस और लोक प्रहरी नामक एनजीओ ने अदालत के समक्ष रखा था। याचिका में दर्ज इस विशंगति को षीर्श न्यायालय ने अपने अभिलेख में प्रष्नांकित करते हुए केंद्र से जवाब तलब भी किया था। केंद्र ने षपथ-पत्र देकर तर्क गढ़ा था कि ‘कई बार सरकार बनाने या गिराने में चंद वोट ही बेहद महत्वपूर्ण होते हैं, लिहाजा सजा मिलने पर किसी जनप्रतिनिधि की सदस्यता खत्म कर दी जाती है तो सरकार की स्थिरता ही खतरे में पड़ सकती है।’ सरकार ने यह भी तर्क दिया था ‘यह उन मतदाताओं के संवैधानिक अधिकार का हनन होगा, जिन्होंने उन्हें चुना है।’ जाहिर है, सरकार राजनीति में शुचिता लाने के बरक्स अपराध बहाली को तरजीह दे रही थी। अन्यथा सरकार क्या यह नहीं जानती कि जो प्रतिनिधि जेल में कैद हैं, वह क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकता है ? क्या सरकार इस संवैधानिक व्यवस्था से अनभिज्ञ है कि किसी प्रतिनिधि की मृत्यु होने, इस्तीफा देने अथवा सदस्यता खत्म होने पर छह माह के भीतर नया जनप्रतिनिधि चुनने की संवैधानिक अनिवार्यता है ? इस स्थिति में न तो कोई निर्वाचन क्षेत्र नेतृत्वविहीन रह जाता है और न ही किसी सरकार की स्थिरता खतरे में पड़ती है ? ऐसी दोषपूर्ण प्रणाली के चलते ही राजनीति का मूलाधार वैचारिक अथवा संवैधानिक निश्ठा की बजाय सत्ता के गणित में सिमट कर रह गया है।

 

दागियों के बचाव में राजनेता और कथित बुद्धिजीवी बड़ी सहजता से कह देते हैं कि दागी, धनी और बाहुबलियों को यदि दल उम्मीदवार बनाते हैं तो किसे जिताना है, यह तय स्थानीय मतदाता को करना होता है। बदलाव उसी के हाथ में है। वह योग्य, षिक्षित तथा स्वच्छ छवि के प्रतिनिधि का चयन करे। लेकिन ऐसी स्थिति में अकसर मजबूत विकल्प का अभाव होता है। ऐसे में मतदाता के समक्ष दो प्रमुख दलों के बीच से ही उम्मीदवार चयन की मजबूरी पेश आती है। लोक पर राजनेता की मंशा असर डालती है। जनता अथवा मतदाता से राजनीतिक सुधार की उम्मीद करना इसलिए बेमानी है, क्योंकि राजनीति और उसके पूर्वग्रह पहले से ही मतदताओं को धर्म और जाति के आधार पर बांट चुके होते हैं। बसपा, सपा और एआइएमआइएस का तो बुनियादी आधार ही जाति है। यह अलग बात है कि जब एक ही जाति के बूते सत्ता पाना संभव नहीं हुआ तो मायावती ने सोषल इंजिनियरिंग के बहाने सर्व समाज हितकारी समीकरण आगे बढ़ा दिया। यही अब सपा कर रही हैं। वैसे भी देष में इतनी अज्ञानता, अषिक्षा, असमानता और गरीबी है कि लोग बांटी जा रही मुफ्त की रेवड़ियों के आधार पर मतदान करने लगे हैं। दिल्ली में भी भाजपा और आम आदमी पार्टी नित नई रेवड़ियां बांट रहे हैं। अतएव राजनीतिक सुधार की दिशा में न्यायालय हस्तक्षेप करके विधायिका को कानून बनाने के लिए उत्प्रेरित तो कर सकती है, लेकिन वह इस दिशा में कोई नया कानून अस्तित्व में नहीं ला सकती ? क्योंकि कानून बनाने का दायित्व संविधान ने विधायिका के पास  सुरक्षित रखा हुआ है। इस लिहाज से हत्या, अपहरण और दुश्कर्म जैसे कुकर्माें में लिप्त आरोपियों को चुनाव लड़ने से रोकना है तो संसद को ही कानून बनाना होगा ?



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