राजनीति में सत्ता व कुर्सी महामोह है। जो भी राजनीति में है, वह इस महामोह से बच नहीं पाता है।वह सोचता है कि सत्ता मिली है तो अब हमेशा उसके पास रहे, कुर्सी मिली है तो अब हमेशा कुर्सी उसके पास रहे और उसके बाद उसके पुत्र या पुत्री के पास रहे।उसके परिवार के पास रहे। जिसको सत्ता और कुर्सी से महामोह हो जाता है, वह जब बूढ़ा हो जाता है, राजनीति से रिटायर होने का समय आता है तो उसको पुत्र मोह हो जाता है। उसकी पार्टी में भले ही एक से बढ़कर एक योग्य नेता हों, लेकिन सीएम या पार्टी के सबसे बड़े नेता को अपना पुत्र ही सबसे ज्यादा योग्य लगता है। उनको लगता है कि जब मैं सीएम हूं तो स्वाभाविक रूप से मेरे बाद सीएम तो मेरे पुत्र को ही होना चाहिए। भले ही वह पार्टी के कई नेताओं से कम अनुभवी हो, कम योग्य हो।
जब भी कोई नेता अपने पुत्र को ही सबसे योग्य समझता है तो वह देश में परिवारवाद को ही बढ़ावा देता है।अपनी पार्टी में तानाशाही को बढ़ावा देता है। परिवारवाद का मतलब ही यह होता है कि अब पार्टी में होगा वही जो परिवार चाहेगा। लोकतंत्र में तो बहुमत का फैसला माना जाता है लेकिन परिवारवाद में परिवार का फैसला ही माना जाता है। यानी परिवार की तानाशाही को पूरी पार्टी को स्वीकार करना पड़ता है। गांधी परिवार हो, लालू परिवार हो, मुलायम परिवार हो, बाला साहेब ठाकरे परिवार हो,करुणानिधि परिवार हो,बादल परिवार हो, इनकी पार्टी में होता वही है जो परिवार चाहता है। हर परिवारवादी राजनीतिक दल की यही सोच होती है कि जनता उसके साथ है, परिवार ने जनता की बड़ी सेवा की है, इसलिए जनता परिवार को सेवा का मौका देती रहेगी।
देश में कई बड़े नेता ऐसे हुए हैं जिन्होंने जिंदगी भर राजनीति की लेकिन परिवारवाद को लंबे समय तक बढा़वा नहीं दिया। उनके बारे में कहा जाता था कि वह ऐसे नेता हैं जो परिवारवाद के खिलाफ है, वह परिवारवाद को कभी बढ़ावा नहीं देंगे।ऐसे एक नेता बाला साहेब ठाकरे थे। वह परिवारवाद के खिलाफ थे, लेकिन अपने आखिरी समय में वह भी पुत्र मोह से बच नहीं सके। शिवसेना में राजठाकरे सहित कई ऐसे नेता थे जो उध्दव ठाकरे से ज्यादा योग्य थे लेकिन बाला साहेब ने आखिरी में अपनी गद्दी के लायक अपने बेटे को ही समझा।
बाला साहेब चाहते तो अपने जिंदा रहते उध्दव ठाकरे को सीएम बना सकते थे,महाराष्ट्र में शिवसेना कई बार सत्ता में रही। बाला साहेब न खुद कभी सीएम बने और न ही परिवार के किसी को सीएम बनाया। शिवसेना के किसी नेता को ही वह सीएम बनाते थे।इससे यह धारणा बनी थी बाला साहेब को किंगमेकर बनना पसंद है। वह सीएम बनना चाहते तो बन सकते थे, परिवार से किसी को सीएम बनाना चाहते थे तो बना सकते थे लेकिन तब उनकी सोच अलग थी,परिवारवाद को बढ़ावा देेने की नहीं थे, तब पुत्र मोह में नहीं पड़े थे। आखिरी समय मे उनके भीतर भी दूसरे परिवारवादी नेताओंं की तरह पुत्र मोह पैदा हो गया, उन्होंने अपनी गद्दी अपने बेटे उध्दव ठाकरे को सौंपी।
उध्दव ठाकरे गद्दी के लायक नहीं थे यह तो कुछ समय में ही साफ हो गया।उनकी सोच अपने पिता से विपरीत थी, पिता कभी सीएम नहीं बनना चाहते थे और उध्दव सीेएम ही बनना चाहते थे, सीएम बनने के लिए उन्होंने भाजपा का साथ छोड़ा, कुछ समय के लिए सीएम बने भी लेकिन कुर्सी का मोह उनकी बरबादी का कारण बना। बाद में उनके पास सीएम की कुर्सी रही और न ही पूरी पार्टी रही। शिवसेना दो भागों में बंट गई। उध्दव ठाकरे के साथ आज थोड़े से विधायक व नेता है और उनकी शिवसेना को असली शिवसेना भी नहीं माना जाता है।
पुत्र मोह में गद्दी के लायक बेेटे को ही समझा जाता है तो उसका परिणाम वही होता है जो महाराष्ट्र में हुआ।महाराष्ट्र में ठाकरे परिवार में जो हुआ उसकी कहानी एक बार फिर से बिहार में दोहराई जा रही है। नीतीश कुमार पर कभी परिवारवाद को बढ़ावा देने का आरोप नहीं लगा।वह लालू के परिवारवाद का विरोध करते रहे हैं।उनके सीएम रहते उनके परिवार को कोई राजनीति में नहीं आया, उन्होंने किसी को विधायक,सांसद या मंत्री नहीं बनाया। अपने बेटे को भी उन्होंने कभी सामने नहीं लाया, इससे लग रहा था कि वह पार्टी के किसी नेता को ही पार्टी सौंप देंगे। वह पार्टी की कमान पार्टी के ही किसी नेता को सौंपेंगे।नीतीश कुमार का राजनीतिक जीवन अब अंतिम चरण में है। इस अंतिम चरण में उनमें बाला साहेब के समान पुत्र मोह पैदा हो गया लगता है। वह भी अपनी गद्दी पार्टी के किसी नेता को सौंपने की जगह अपने पुत्र निशांत कुमार को सौंपना चाहते हैं।
बिहार में इन दिनों नीतीश कुमार के पुत्र निशांत कुमार का नाम सुर्खियों में है।कयास लगाया जा रहा है कि नीतीश कुमार अपने पुत्र को राजनीति में लाने वाले हैं।माना जा रहा है कि बिहार विधानसभा चुनाव से पहले निशांत कुमार की राजनीति में एंट्री हो सकती है। नीतीश कुमार अभी अपने करीबी नेताओं से यह देखने को कहा है कि निशांत को लेकर पार्टी में कितनी स्वीकृति है। नीतीश कुमार के करीबी नेता पार्टी के भीतर माहौल बनाने का प्रयास कर रहे हैं कि निशांत कुमार ही नीतीश कुमार के स्वाभाविक उत्तराधिकारी हैं। यही वजह है कि निशांत जो पहले पार्टी के कार्यक्रमों मे दिखते नहीं थे,अब दिखने लगे हैं। हाल ही मे आयोजित होली समारोह में निशांत कुमार काफी सक्रिय दिखे।माना जा रहा है कि नीतीश कुमार ने यह तय कर लिया है कि उनका पुत्र भी आने वाले समय में पार्टी की मुखिया होगा। वही पार्टी के साऱे फैसले करेगा।
भाजपा ने पहले ही घोषणा कर दी है कि अगला चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। नीतीश कुमार यदि अपने बेटे को बिहार की राजनीति में स्थापित करना चाहते हैं तो भाजपा इसमें उनको सहयोग कर सकती है।क्योंकि भाजपा तो यह पहले भी कर चुकी है चाहे वह बादल के बेटे हों,बाला साहेब के बेटे हो,उनके साथ राजनीति कर चुकी है। चुनाव लड़ चुकी है।उध्दव ठाकरे ने भाजपा को धोखा नहीं दिया होता तो आज वह महाराष्ट्र की राजनीति में बड़े नेता होते। अब यह नीतीश कुमार को तय करना है कि उनके बेटे के लिए भाजपा ठीक रहेगी या लालू का परिवार। दोनों में से एक साथ लेना जरूरी है नीतीश कुमार के लिए अपने बेटे को बिहार की राजनीति में स्थापित करने के लिए।
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