हमारा मन जितना शांत हो उतना ही निर्मल भी हो : राष्ट्रसंत ललितप्रभ

Posted On:- 2022-07-27




आज प्रवचन ‘तपस्याः मिटाएगी तन-मन की समस्या’ विषय पर

रायपुर (वीएनएस)। ‘‘मन का केवल शांत होना ही नहीं, उसका शुद्ध होना भी जरूरी है। जितना जरूरी है हमारा मन शांत हो, उससे पहले जरूरी है हमारा मन शुद्ध भी हो। इसीलिए कहा गया है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। आदमी का मन यदि पवित्र है तो उसे गंगा तक जाने की भी जरूरत नहीं। मन जितना शांत हो, उतना ही हमारा मन निर्मल भी हो। केवल शरीर की सफाई से ही आदमी निर्मल नहीं होता, जिंदगी में उसके विचार भी पवित्र होने चाहिए। मन की शांति के साथ-साथ मन की पवित्रता भी जरूरी है। क्योंकि जहर से सने हुए पात्र में अगर अमृत भी डाल दिया गया तो वह भी जहर बन जाता है। मन लोभी मन लालची मन चंचल चितचोर, अरे मन के मते ना चालिए, पलक-पलक मन होत। लोभी का वश चले तो वह पूरी दुनिया की दौलत तो क्या, पूरी दुनिया का राजा बनना वह पसंद करेगा। मन की अशांति का एक बड़ा कारण है क्योंकि वह कभी तृप्त नहीं होता। मुक्ति, आनंद और शांति का मार्ग उसी के लिए है जो अपने मन को शांत भावों से तृप्त कर ले।’’

ये प्रेरक उद्गार राष्ट्रसंत महोपाध्याय श्रीललितप्रभ सागर महाराज ने आउटडोर स्टेडियम बूढ़ापारा में जारी दिव्य सत्संग ‘जीने की कला’ के अंतर्गत स्वास्थ्य सप्ताह के तृतीय दिवस बुधवार को ‘मन की शांति पाने के लिए क्या करें’ विषय पर व्यक्त किए। विषयान्तर्गत संतप्रवर ने आगे कहा कि दुनिया में सबसे बड़ी दौलत यदि कोई है तो वह है आदमी के मन की शांति। इसी दौलत को पाने भगवान श्रीमहावीर और गौतम बुद्ध ने राजमहलों का त्याग कर दिया था। जिसके पास ये दौलत होती है, उसे दुनिया की और किसी दौलत की जरूरत नहीं पड़ती।

अंतिम प्रार्थना में हमारे शब्द होते हैं भगवान उनकी आत्मा को शांति दें

संतप्रवर ने कहा कि इस संसार से विदा हो चुके व्यक्ति की अंतिम अरदास-उठावना या शोक सभा में लोग जाने वाले की तारीफ किया करते हैं और आखिर में उनके शब्द ये ही होते हैं कि परम पिता परमात्मा उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें। उस समय संसार की किसी भी वस्तु या व्यक्ति को प्रदान करने की नहीं, शांति प्रदान करने की प्रार्थना की जाती है। तब व्यक्ति को शांति का वास्तव में महत्व और अर्थ समझ आता है। विवेकवान-बुद्धिमान वो है जो अपने जीते-जी मन की शांति को पा लेता है। ताकि उसके जाने के बाद लोग उसकी आत्मशांति की नहीं अपितु आत्मोन्नति के लिए प्रार्थना करें। उसकी सकारात्मक सोच यही होती है कि मैं इतना कमजोर बनकर नहीं जाउंगा कि मेरे मरने के बाद लोग मेरे मन की शांति के लिए प्रार्थना करें, इससे अच्छा है कि मैं अपने जीते-जी मन की शांति पा लूं।

घर को मंदिर बनाने की आज ज्यादा जरूरत

संतश्री ने कहा कि आज के युग में घर को मंदिर बनाने की ज्यादा जरूरत है। मंदिर में तो किसी की आलोचना, किसी पर टीका-टिप्पणी नहीं की जाती न। क्यों न हम अपने घर को मंदिर बना लें ताकि हम जिंदगी में कभी भी अनुचित और धर्मविरूद्ध कार्य न कर सकें।

 मन की शांति पाने का पहला मंत्र नो नेगेटिव-बी पाॅजीटिव

संतप्रवर ने कहा कि अक्सर आदमी का नजरिया दूसरों में बुराइयां-कमियां देखने का होता है, मन की अशांति का यह बड़ा कारण है। मन की शांति का मालिक होने के लिए सबसे पहला मंत्र है- नो नेगेटिव-बी पाॅजीटिव। यह मंत्र अगर आपकी जिंदगी में आ गया तो फिर आपको किसी में कमजोरी या बुराई नजर नहीं आएगी। वह हमेशा सकारात्मक होकर बड़ी सोच का मालिक बना रहेगा। क्योंकि आदमी को मन की शांति न तो संसार के रंगों में मिलती है और न ही धन में मिलती है, हजारों-हजार जन्मों तक संसार के रंगों के साथ रह लो लेकिन फिर भी कभी मन इनसे तृप्त नहीं होता। संसार के भोग-विलासों से आज तक किसी के मन को तृप्ति नहीं मिली। एक संत और एक गृहस्थ में फर्क केवल मकान और कपड़े का नहीं होता। गृहस्थ वह है जिसके पांव तो यहां टिके हैं पर उसका मन पूरी दुनिया में भटकता है और संत वो है जिसके पांव तो चलते हैं पर मन हमेशा टिका हुआ रहता है। जिसका मन हमेशा एकांत और शांत रहता है, वही आदमी संत जीवन का मालिक बन सकता है।

मुस्कुराते हुए जीना हमारी प्रकृति है

रोते हुए जीना हमारी नियती नहीं। रोते हुए पैदा होना यह हमारी नियती थी पर मुस्कुराते हुए जीना यह हमारी प्रकृति बन सकती है। बशर्तें हम जीना सीख लें।

अपने मन को कचरा पेटी न बनाएं

संतश्री ने आगे कहा कि मन की शांति पाने के लिए दूसरा मंत्र है- लोड मत लो। मेरे साथ ही ऐसा क्यों हो रहा है, उसे तो सब कुछ मिल रहा है। दूसरों को देख कर ऐसा मन बनाना, इसी का नाम है मन की अशांति। क्योंकि जब जिसके साथ जो होना है वो हो रहा है, मेरे रोकने से वो रूकेगा नहीं और मेरे चाहने से वह होगा नहीं। नगर पालिका की कचरा पेटियों में कचरा कम होगा पर उससे ज्यादा ईष्र्या, वैमनस्य, कुंठा, द्वेष आदि कसायों का कचरा हमने अपने मन की पेटी में भर रखा है। इस कचरे की सफाई किए बिना मन कभी शांत हो नहीं पाएगा। मन की शांति पाने का तीसरा मंत्र है- कभी भी किसी से अपनी तुलना मत करो। जिसको जो मिला है, उसकी किस्मत से मिला है। मुझे जो मिला है वह मेरे भाग्य से ज्यादा मिला है। दूसरों को देख कर मन को कभी दुखी मत करो। हमें अपने मन की दशाओं को सकारात्मकता की ओर बदलना बहुत जरूरी है। तीसरा मंत्र है- मैं जीवन में हर पल प्रसन्न रहुंगा। हमेशा वर्तमान का आनंद लूंगा। चैथा बेशकीमती मंत्र है- जो है प्राप्त वही है पर्याप्त। पांचवा मंत्र है- अपने जीवन के अप्रिय प्रसंगांें को जीवन से निकाल दो। छठा मंत्र है- कभी भी किसी के बनते काम में ज्यादा हस्तक्षेप या दखलंदाजी मत करो। सातवां मंत्र है- किसी के प्रतिकूल व्यव्हार से छोटी-छोटी बातें जो दिमाग में घर कर चुकी हैं, उन्हें भूल जाओ। या सामने वाले को दिल से माफ कर दो। आठवां मंत्र है- पानी से आधी भरी गिलास को हमेशा आधी भरी हुई देखो। और मन की शांति का मालिक बनने नवां अंतिम व महत्व का मंत्र है- रोज ध्यान-मेडिटेशर जरूर करो। यदि इन मंत्रों को आप अपनी जिंदगी में जोड़ लेते हैं तो आपका जीवन आनंदमयी हो जाएगा।

धर्मसभा के आरंभ में श्रद्धेय संतश्री ने राष्ट्र्संत चंद्रप्रभजी द्वारा रचित भाव गीत ‘जीवन है उपहार प्रभु का इसको रौशन कीजिए, पहले अपने अन्तरमन को शांति से भर लीजिए...’ के गायन से श्रद्धालुओं को आनंदमय-शांतिमय जीवन जीने की प्रेरणा दी।

हृदय में प्रेम मैत्री नम्रता संतोष की करें स्थापनाः डॉ. मुनि शांतिप्रिय

दिव्य सत्संग के पूर्वार्ध में डॉ. मुनिश्री शांतिप्रिय सागर ने एक रोचक कहानी के माध्यम से प्रेरणा प्रदान करते कहा कि हम अपने जीवन में क्रोध, मान, माया, लोभ को त्याग कर मन-हृदय में प्रेम, नम्रता, मैत्री और संतोष को स्थापित करें। हमारा चरित्र सुंदर होगा तो हमें परमात्मा पसंद करेंगे। हमें अपने प्रजेंटेशन के साथ-साथ अपने इन्टेंशन अर्थात् मनोभावों को भी अच्छा रखना चाहिए। अपने मन से छल-कपट, बैर, विरोध, स्वार्थ, संकीर्णताओं और चिंता-तनाव के कचरे को बाहर निकाल फेंकें। अन्यथा इस भीतर के इस बोझ का प्रभाव हमारे भाव हृदय पर भी हो ही जाएगा। हमें अपनी भावनाओं और भावों को हमेशा बेहतर व सकारात्मक बनाए रखना चाहिए। यदि भाव बिगड़ तो भव-भव बिगड़ जाएंगे। आज तक जो भी भावों से गिरा है वह डूब गया और जो भावों से उठा है वह तिर गया है।

तपस्वी का बहुमान

धर्मसभा में आज तपस्वी सुश्री आयुषी बरड़िया का बहुमान दिव्य चातुर्मास समिति व श्री ऋषभदेव मंदिर ट्र्स्ट की ओर से कियागया।

इन अतिथियों ने किया दीप प्रज्जवलित

श्रीऋषभदेव मंदिर ट्र्स्ट के अध्यक्ष विजय कांकरिया, कार्यकारी अध्यक्ष अभय भंसाली, ट्र्स्टीगण तिलोकचंद बरड़िया, राजेंद्र गोलछा व उज्जवल झाबक ने संयुक्त जानकारी देते बताया कि बुधवार की दिव्य सत्संग सभा का शुभारंभ अतिथिगण गिरीश वोरा, डाॅ. अनिल जैन, डाॅ. गौतम जैन, संतोष बैद, महावीरचंद प्रकाशचंद बुरड़, राजेश निम्माणी, इंदिरा वोरा बंगलुरू, राजेंद्र मुणोत सोलापुर, दिलीप रूपचंदानी व ट्र्स्ट मंडल के कार्यकारी अध्यक्ष अभय भंसाली द्वारा दीप प्रज्जवलित कर किया गया। अतिथि सत्कार दिव्य चातुर्मास समिति के अध्यक्ष तिलोकचंद बरड़िया व पीआरओ समिति से मनोज कोठारी ने किया। आज धर्मसभा में प्रवचनों का लाभ लेने व संतश्री से आशीर्वचन प्राप्त करने पूर्व मंत्री राजेश मूणत का आगमन हुआ। सभी अतिथियों को श्रद्धेय संतश्री के हस्ते ज्ञानपुष्प स्वरूप धार्मिक साहित्य भेंट किये गये। सूचना सत्र का संचालन चातुर्मास समिति के महासचिव पारस पारख ने किया।  

आज प्रवचन ‘तपस्याः मिटाएगी तन-मन की समस्या’ विषय पर :

दिव्य चातुर्मास समिति के अध्यक्ष तिलोकचंद बरड़िया, महासचिव पारस पारख, प्रशांत तालेड़ा, कोषाध्यक्ष अमित मुणोत व स्वागताध्यक्ष कमल भंसाली ने बताया कि स्वास्थ्य सप्ताह के चतुर्थ दिवस गुरूवार 28 जुलाई को सुबह 8ः45 बजे से ‘तपस्याः मिटाएगी तन-मन की समस्या’ विषय पर प्रवचन होगा। श्रीऋषभदेव मंदिर ट्रस्ट एवं दिव्य चातुर्मास समिति ने श्रद्धालुओं को चातुर्मास के सभी कार्यक्रमों व प्रवचन माला में भाग लेने का अनुरोध किया है।



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