तमिलनाडु में भी उठी हिंदी समर्थक आवाज

Posted On:- 2025-03-05




- उमेश चतुर्वेदी 

संस्कृति का उपादान और उसके नैरंतर्य का जरिया होने की वजह से भाषाएं उन लोगों के लिए भावनात्मक मुद्दा होती हैं, जो उन्हें प्राथमिक जुबान के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन अपने राजनीतिक फायदे के लिए तमिलनाडु की इसी भावना का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन अब हिंदी के समर्थन में तमिलनाडु के भीतर से ही आवाज उठने लगी है। श्रीधर वेंबु तमिल माटी के ही सपूत हैं, इंटरनेट, सॉफ्टवेयर और कारोबार की दुनिया में उनकी कंपनी जोहो का डंका बज रहा है। यही श्रीधर वेंबु खुलेतौर पर कहने लगे हैं कि आइए हम हिंदी सीखें। हिंदी ना जानने की वजह से हो रही कारोबारी दुश्वारियों को वे समझ रहे हैं, इसीलिए वे ना सिर्फ हिंदी सीख रहे हैं, बल्कि इसकी मुनादी भी कर रहे हैं।

श्रीधर ने ट्वीटर पर जब हिंदी सीखने की अपील की तो इसे स्टालिन की भाषायी राजनीति के जवाब के तौर पर देखा जाने लगा। ऐसा होना स्वाभाविक भी है। क्योंकि तमिल संस्कृति और भाषा के सम्मान के नाम पर वह तमिल भावनाओं को उभारने की कोशिश कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में वे कभी हिंदी को साम्राज्यवादी बताते हैं  और जब हिंदी पर यह आरोप साबित नहीं हो पाता तो वह हिंदी पर यह आरोप लगाने से भी पीछे नहीं हटते कि अपने हृदय प्रदेश की बोली-बानियों और छोटी भाषाओं के अस्तित्व को उसने निगल लिया है। स्टालिन का यह कहना कि हिंदी ने भोजपुरी, अवधी, अंगिका आदि भाषाओं के अस्तित्व को नष्ट कर दिया है, उसी आरोपबाजी का विस्तार है। जबकि हकीकत यह है कि हिंदी ने अपने हृदय प्रदेश की किसी भी भाषा के अस्तित्व को कोई चोट नहीं पहुंचाई है। उलटे हिंदी इन भाषाओं के बीच संपर्क भाषा के रूप में काम कर रही है। वह उन भाषाओं से शब्दों को लेकर समृद्ध भी हो रही है। अवधी, भोजपुरी, बैसवाड़ी या ब्रजभाषी जब अपने भाषा समुदाय से दूर के लोगों से मिलतें हैं, उनके सहज संवाद की भाषा हिंदी होती है। इस संवाद प्रक्रिया में वह हर भाषा से कुछ शब्द लेती है, उन्हें दोनों के बीच के कड़ी के रूप में स्थापित करती है और इस तरह खुद भी समृद्ध होती है और अपनी बोली या उपभाषाओं को भी ताकतवर बनाती है। 

महात्मा गांधी ने तमिल और तेलुगू युवाओं से एक सौ सात साल पहले हिंदी सीखने की अपील की थी। उनके ही आह्वान पर 17 जन 1918 को एनी बेसेंट और रामास्वामी अय्यर ने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना की थी। गांधी जी का सपना था कि तमिल और तेलुगू जैसे अहिंदीभाषी इलाकों के हिंदी को ना सिर्फ सीखें, बल्कि हिंदी को लेकर अपने राज्यों में माहौल बनाएं। गांधी जी का वह सपना सौ साल से अधिक वक्त के बाद सच होता नजर आ रहा है। श्रीधर वेंबू जैसे घोर तमिलभाषी व्यक्ति का हिंदी के समर्थन में सामने आना और उनके साथ तमिलनाडु ही नहीं, कर्नाटक, आंध्र, तेलंगाना आदि के लोगों का खड़ा होना मामूली बात नहीं है। हिंदी को लेकर तमिलनाडु के आम जन की जो छवि कम से कम उत्तर भारत में बनी है, तमिलनाडु से हिंदी के समर्थन में उठने वाली ये आवाजें उसे खंडित कर रही हैं। श्रीधर वेंबु जैसी महत्वपूर्ण स्वरों का हिंदी के समर्थन में उठना तमिलनाडु के आमजनों की कथित हिंदी विरोधी छवि का भी जवाब है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े रहे आर्थिक विचारक एस गुरूमूर्ति तमिलनाडु के सामाजिक और राजनीतिक हलके की महत्वपूर्ण आवाज हैं। लेकिन हिंदी को लेकर तमिलनाडु में जो सामान्य धारणा रही है, उसकी वजह से हिंदी समर्थक उनके सुर को तमिल माटी में तवज्जो देने से बचा जाता रहा है। लेकिन श्रीधर वेंबु की आवाज और उनके समर्थन में सोशल मीडिया मंचों पर उमड़े युवा स्वरों ने गुरूमूर्ति की हिंदी समर्थक आवाज को ताकत दी है। गुरूमूर्ति भी खुलकर हिंदी विरोधी राजनीति के खिलाफ अपने तर्क दे रहे हैं और उन तर्कों को तमिलनाडु में ध्यान से सुना-पढ़ा जा रहा है। हिंदी का समर्थन करते हुए श्रीधर यह भी कह रहे हैं कि उनकी कंपनी का कामकाज तमिलनाडु की तुलना में दूसरे राज्यों में ज्यादा है। जहां उनकी कंपनी अपने तमिल अधिकारियों और प्रोफेशनल को भेजने में हिचकती है, क्योंकि वे दूसरे राज्यों में सहज संवाद विशेषकर जमीनी स्तर पर नहीं कर पाते। 

1965 में तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन हुआ था। उसकी वजह यह थी कि संवैधानिक प्रावधानों के चलते हिंदी को राजकाज की भाषा का स्थान लेने के लिए पंद्रह साल की अवधि 25 जनवरी 1965 को पूरी हो रही थी। तब क्षेत्रीय द्रविड़ राजनीति को हिंदी विरोध में अपनी राजनीतिक राह दिखी। तमिल उपराष्ट्रीयता को उन्होंने हिंदी विरोध के नाम उभारा और स्थानीय लोक को अपने पक्ष में लामबंद किया। इसकी वजह से भारत सरकार को हिंदी को राजकाज की भाषा बनाने के संवैधानिक आग्रह को अनंत काल के लिए कानूनी तौर पर टालना पड़ा। इन अर्थों में तमिलनाडु का हिंदी विरोधी आंदोलन सफल कहा जाएगा। उसी वक्त से तमिलनाडु के सरकारी विद्यालयों में त्रिभाषा फॉर्मूला लागू नहीं है, जबकि तकरीबन समूचे देश में पढ़ाई के लिए त्रिभाषा यानी स्थानीय भाषा, हिंदी और अंग्रेजी की पढ़ाई की सुविधा लागू है। साल 2020 में आई नई शिक्षा नीति में फिर से प्राथमिक स्तर से ही त्रिभाषा फॉर्मूला लागू करने की बात की गई है और स्टालिन का हिंदी विरोध इसी फॉर्मूले के विरोध के साथ उभरा है। 

तमिलनाडु के सरकारी विद्यालयों से हिंदी भले ही दूर हो, लेकिन सीबीएसई बोर्ड के पाठ्यक्रम लागू करने वाले विद्यालयों में हिंदी की पढ़ाई हो रही है। अखिल भारतीय नौकरियों के मद्देनजर स्थानीय लोग अपने बच्चों को सीबीएसई बोर्ड वाले स्कूलों में पढ़ा तो रहे ही हैं, बच्चों को अलग से हिंदी की कोचिंग भी दिला रहे हैं। गुरूमूर्ति के अनुसार, तमिलनाडु में सीबीएसई बोर्ड वाले स्कूलों में साठ लाख विद्यार्थी पढ़ रहे हैं, जबकि तमिलनाडु सरकार के विद्यालयों में करीब 83 लाख बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि तमिलनाडु सरकार के विद्यालयों के बच्चे हिंदी से दूर हैं, जिनकी संख्या सीबीएसई विद्यालयों के विद्यार्थियों का करीब एक सौ बीस गुना ज्यादा है। तमिलनाडु की आज की प्रौढ़ हो चुकी पीढ़ी में एक वर्ग ऐसा भी है, जो सोचता है कि हिंदी विरोधी आंदोलन में हिस्सा लेकर उसने गलती की। इस गलती को सुधारने के लिए वह पीढ़ी अपने बच्चों को हिंदी से घृणा करना सीखने-सिखाने से बचती है। इसके अलावा दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा अब तक सवा दो करोड़ से ज्यादा लोगों को हिंदी सिखा और पढ़ा चुकी है। इसी साल उससे जुड़े विद्यार्थियों की संख्या पांच लाख से कुछ ज्यादा ही है। अब तमिलनाडु में ऐसे लोग मिल जाएंगे, जो हिंदी के समर्थन में आवाज उठाते हैं। ऐसे लोगों में ज्यादातर वे हैं, जिन्होंने तमिलनाडु के बाहर भारतीयों के बीच संपर्क और संवाद के रूप में हिंदी को सहज पाया है और खुद हिंदी ना जानने की वजह से एक हद तक खुद को लाचार समझते रहे हैं। श्रीधर वेंबु जैसे लोगों का हिंदी के समर्थन में आना, ऐसी आवाजों को ताकत दे रहा है। यही ताकत तमिलनाडु में हिंदी के लिए उम्मीद की किरण है। यह ताकत तमिल उपराष्ट्रीयता के बेजा इस्तेमाल का भी जवाब है। 

-उमेश चतुर्वेदी




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