आखिर तीसरे मोर्चे के सियासी तीरंदाजों का राजनीतिक भविष्य अब क्या होगा?

Posted On:- 2025-02-11




- कमलेश पांडे 

दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 के दौरान भाजपा और कांग्रेस विरोधी क्षेत्रीय दलों ने जो पारस्परिक एकजुटता दिखाई, उससे भी यहां पिछले 12 वर्षों तक सत्तारूढ़ रही आम आदमी पार्टी यानी 'आप' की सियासी भलाई संभव नहीं हो पाई और भाजपा नीत एनडीए के हाथों 'आप' को करारी चुनावी मात मिली। इस चुनाव में 70 सदस्यीय दिल्ली विधानसभा की 48 सीटों पर जहां भाजपा ने बाजी मारी, वहीं आप को उसने महज 22 सीटों पर ही समेट दिया। 

वहीं, दिल्ली पर सत्तारूढ़ रही इंडिया गठबंधन की सहयोगी  'आप' की रणनीति ही ऐसी मारक रही कि देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस का यहां तीसरी बार भी खाता नहीं खुलने दिया, जिससे उसके रणनीतिकारों की राजनीतिक पेशानी पर बल पड़ना स्वाभाविक है। बता दें कि 2015, 2020 और 2025 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को एक भी सीट पर चुनावी सफलता नहीं मिल पाई है, जबकि उसकी शीला दीक्षित सरकार ने डेढ़ दशक तक यहां शासन किया है और दिल्ली के बहुमुखी विकास में उल्लेखनीय भूमिका अदा की है।

दरअसल, यह सब कुछ अनायास नहीं हुआ बल्कि भाजपा की एक सोची-समझी गुप्त रणनीति के तहत किया गया, जिसे अपनी-अपनी राजनीतिक जमीन बनाने के चक्कर में आप और कांग्रेस नहीं समझ पाई। साथ ही, कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन में शामिल क्षेत्रीय दलों ने भी आप और कांग्रेस के बीच लोकसभा चुनाव 2024 के आए परिणामों के बाद से दिल्ली-पंजाब में चौड़ी हो रही सियासी खाई को पाटने में दिलचस्पी नहीं दिखाई, बल्कि आप की खुली तरफदारी करके कांग्रेस को नीचा दिखाने का काम किया। इससे भी बात बनते बनते बिगड़ गई।

बता दें कि दिल्ली के पड़ोसी राज्य उत्तरप्रदेश की प्रमुख विपक्षी समाजवादी पार्टी यानी सपा के मुखिया व पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, पश्चिम बंगाल की सत्तारूढ़ तृण मूल कांग्रेस यानी टीएमसी की सुप्रीमो व मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, महाराष्ट्र की विपक्षी पार्टी शिवसेना यूबीटी के आलाकमान उद्धव भाऊ ठाकरे, एनसीपी शरद पवार के प्रमुख शरद पवार आदि ने अपने-अपने सूबे में जारी कांग्रेस के सियासी दांवपेचों से खार खाते हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों में आप की खुली तरफदारी की, जिससे कांग्रेस का मुस्लिम-दलित वोट बैंक आप के साथ जुड़ा रहा। इससे दिल्ली में कांग्रेस को तीसरी बार भी जीरो पर समेटने में 'आप' सफल रही।

गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव 2024 से पहले कांग्रेस के नेतृत्व में बने 'इंडिया गठबंधन' में आप भले ही दिल्ली में शामिल रही, लेकिन पंजाब में उसने दोस्ताना मुकाबला किया। फलाफल यह निकला कि दिल्ली की कुल 7 लोकसभा सीटों में से आप के हिस्से वाली 3 सीटों पर और कांग्रेस के हिस्से वाली 4 सीटों पर भाजपा ने दोनों पार्टियों को जबरदस्त शिकस्त दी। वहीं, पंजाब में हुए दोस्ताना टक्कर के दौरान वहां सत्तारूढ़ 'आप' पर कांग्रेस भारी पड़ी, क्योंकि पंजाब के 14 लोकसभा सीटों में से आप को जहां मात्र 3 सीटों पर जीत मिली, वहीं कांग्रेस ने 7 सीटों पर अपना कब्जा जमा लिया। जो आप नेताओं को नागवार गुजरा। जबकि कांग्रेस ने अपनी सूबाई नेतृत्व की पीठ थपथपाई, जिसने अड़ियल रूख दिखलाकर आप-कांग्रेस में आत्मघाती राजनीतिक समझौता नहीं होने दिया और आप पर दुगुनी से ज्यादा बढ़त हासिल करके दिखला दिया।

समझा जाता है कि यहीं से कांग्रेस और आप में पुनः राजनीतिक दूरी बननी शुरू हो गई, क्योंकि पंजाब में कांग्रेस की रीति-नीति ही वहां पर सत्तारूढ़ आप की भगवंत मान सिंह सरकार के लिए गम्भीर खतरा बन सकती है। चूंकि कांग्रेस ही पंजाब में मुख्य विपक्षी पार्टी है, इसलिए उसके साथ आप की राजनीतिक मित्रता का पंजाब के लोगों के बीच गलत संदेश जा सकता है। वहीं, दिलचस्प बात यह है कि चाहे दिल्ली हो या पंजाब, आप ने कांग्रेस को सियासी शिकस्त देकर ही सत्ता पाई है। इसलिए दोनों में महज भाजपा विरोधी धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर दोस्ती की गुंजाइश बनाना आप के लिए आत्मघाती रणनीति हो सकती है।

कुछ यही सोचकर आप ने दिल्ली में एकला चलने का निर्णय लिया और इंडिया गठबंधन के क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस विरोध के नाम पर अपने पाले में कर लिया। हालांकि, जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री और नेशनल कांफ्रेंस नेता उमर अब्दुल्ला ने इस मामले में कांग्रेस-आप समेत इंडिया गठबंधन के विभिन्न घटक दलों को समय रहते ही आगाह कर दिया था, लेकिन उनकी दूरदर्शितापूर्ण सलाह की सबने अनदेखी की। यही वजह है कि आप व कांग्रेस की उम्मीदों के विपरीत चुनाव परिणाम मिलने पर उन्होंने सटीक टिप्पणी की कि "जी भरकर लड़ो, खत्म कर दो एक दूसरे को।"

कहने का तातपर्य यह कि उमर अब्दुल्ला चाहते हैं कि इंडिया गठबंधन के घटक दलों को साथ मिलकर चुनाव लड़ना चाहिए, क्योंकि घटक दलों के आपस में लड़ने से भाजपा को फायदा मिल रहा है। चूंकि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तरह जम्मू-कश्मीर में भी उमर अब्दुल्ला ने भाजपा को रोका है, इसलिए उनकी बातों का अपना महत्व है। इधर शिवसेना यूबीटी प्रवक्ता संजय राउत ने भी कहा है कि दिल्ली में कांग्रेस और आप मिलकर लड़ते तो परिणाम अलग होते। भाजपा की हार तय थी। 

उधर, माकपा नेता टीपी रामकृष्णन ने आरोप लगाया कि कांग्रेस ने इंडिया गठबंधन के प्रभावी समन्वय के लिए कदम नहीं उठाए। इनकी बातों में दम है क्योंकि जब दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस विरोधी क्षेत्रीय दल आप को समर्थन देने लगे तो कांग्रेस की ओर से बयान आया कि इंडिया गठबंधन सिर्फ लोकसभा चुनाव के लिए था। विभिन्न राज्यों की राजनीतिक परिस्थितियों के मद्देनजर कांग्रेस स्वहित के अनुकूल निर्णय करेगी। उसकी यही बात इंडिया गठबंधन के घटक दलों को भी नागवार गुजरी।

राजनीतिक मामलों के जानकार बताते हैं कि चूंकि लोकसभा चुनाव 2024 में कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन को अप्रत्याशित सफलता मिली थी, इसलिए उसको और मजबूत किए जाने का दारोमदार भी कांग्रेस पर ही है। लेकिन उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी, महाराष्ट्र में शिवसेना यूबीटी और एनसीपी शरद पवार, पश्चिम बंगाल में टीएमसी आदि को ज्यादा लोकसभा सीटें मिलने से इनकी अंदरूनी प्रतिस्पर्धा कांग्रेस से ही शुरू हो गई, जो बात राहुल गांधी को नागवार गुजरी। 

उनसे जुड़े सूत्रों का कहना है कि 1977, 1989 और 1996 में जिन दलों ने कांग्रेस की कब्र खोदी औए 2004 से 2014 तक कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए सरकार से मतलब परस्त आंखमिचौली करके उसे कमजोर किया, उनसे कांग्रेस के भले की उम्मीद करना व्यर्थ है। इसलिए 'आत्मनिर्भर कांग्रेस' की रणनीति पर जोर देना उन्होंने पुनः शुरू किया है, जिससे कथित तीसरे मोर्चे के यूपीए, महागठबंधन, महाविकास अघाड़ी और इंडिया गठबंधन के साझीदारों में खलबली मची हुई है।

आपको याद दिला दें कि केंद्र में 1979-80 में विभाजित जनता पार्टी की चौधरी चरण सिंह सरकार, 1990 में विभाजित जनता दल की चंद्रशेखर सरकार और 1996-98 में भाजपा विरोधी संयुक्त मोर्चे क्रमशः देवगौड़ा और गुजराल सरकार के उत्थान-पतन में कांग्रेस की शातिर राजनीतिक चालों का अहम योगदान रहा है, ताकि कांग्रेस विरोधी मोर्चा समय रहते ही धराशायी हो जाए। उस दौर में क्षेत्रीय दल कभी आरएसएस, कभी जनसंघ और बाद में भाजपा से गठबंधन करके कांग्रेस को केंद्रीय व सूबाई सत्ता से सत्ताच्युत तो कर देते थे, लेकिन उसकी कुटिल चालों के सामने टिक नहीं पाते थे।

हालांकि, भाजपा नेतृत्व ने समय रहते ही इसे समझ लिया और कभी गठबंधन तो कभी एकला चलो की रणनीति अपनाकर खुद को कांग्रेस के मजबूत विकल्प के रूप में उभरी और उसके तमाम सियासी रिकॉर्डों को ध्वस्त करती चली गई। यही वजह है कि कांग्रेस फिर उन्हीं दलों के साथ गठबंधन करने लगी, जिनको वह 1977 या 1989 या 1996 के सियासी दौर में देखना पसंद नहीं करती थी। 

इस नजरिए से 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए का गठन करके क्षेत्रीय दलों को साथ लेने का सोनिया गांधी का फैसला एक महत्वपूर्ण राजनीतिक फैसला साबित हुआ। ऐसा करके उन्होंने न केवल एनडीए पर बढ़त बनाई, बल्कि 10 सालों तक केंद्र में शासन भी किया। हालांकि, अपने सहयोगी दलों की करतूतों का सियासी खामियाजा भी कांग्रेस को 2014 में भुगतना पड़ा। जिससे वह आज तक उबर नहीं पाई है।

इसी बीच यूपी-बिहार की सूबाई सत्ता में बने रहने के लिए महागठबंधन में उसकी भागीदारी, महाराष्ट्र की सूबाई सत्ता में बने रहने के लिए महाराष्ट्र विकास अघाड़ी (एमवीए) में कांग्रेस की भागीदारी छोटे भाई के तौर पर अवश्य रही, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले इंडिया गठबंधन का बड़ा भाई बनकर राजनीतिक सफलता पाने में एक बार फिर वह सफल हुई और 52 से 99 संसदीय सीटों तक पहुंच गई। 

इसलिए इसको संभाले रखने की उसकी जिम्मेदारी ज्यादा है क्योंकि उसे ज्यादा राजनीतिक लाभ मिला है। लेकिन अरविंद केजरीवाल (आप), अखिलेश यादव (सपा), ममता बनर्जी (टीएमसी), उद्धव भाऊ ठाकरे (शिवसेना यूबीटी), शरद पवार (एनसीपी शरद पवार), तेजस्वी यादव (राजद) जैसे समान राजनीतिक महत्वाकांक्षा वाले राजनेताओं को झेलना राहुल गांधी जैसे कद्दावर और स्पष्टवादी राजनेता के वश की बात भी नहीं है।

वहीं, 2022 में यूपी विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने का समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव का फैसला, 2024 के यूपी विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस को कमतर ठहराने का अखिलेश यादव का निर्णय, 2025 में दिल्ली विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने का आप नेता अरविंद केजरीवाल का फैसला, लोकसभा चुनाव 2024 में बिहार में कांग्रेस को कम सीटें देने का राजद नेता तेजस्वी यादव का फैसला कुछ ऐसा अटपटा निर्णय रहा, जो कांग्रेस से ज्यादा उन दलों पर भारी पड़ गया, जिन्होंने कांग्रेस की उपेक्षा की।

वहीं, हरियाणा विधानसभा चुनाव 2024 में इंडियन नेशनल लोकदल द्वारा कांग्रेस के साथ नहीं जाने का फैसला भी दोनों दलों पर भारी पड़ा। 

वहीं, झारखंड विधानसभा चुनाव 2024 के दौरान वहां की  सत्तारूढ़ पार्टी जेएमएम द्वारा कांग्रेस के साथ समझदारी पूर्ण सीट बंटवारा, जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव 2024 के दौरान वहां की मुख्य पार्टी नेशनल कांफ्रेंस द्वारा कांग्रेस को साथ लेकर चलने से उन्हें सूबाई सत्ता हथियाने में सफलता मिली और काँग्रेस का सियासी मस्तक भी भाजपा के सामने कुछ ऊंचा उठा।

इससे साफ है कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन को सियासी मात देने के लिए इंडिया गठबंधन (पूर्व की यूपीए) में शामिल क्षेत्रीय दलों के साथ कांग्रेस द्वारा सूझबूझ भरा रिश्ता विकसित किया जाना चाहिए। वहीं, बात-बात में कांग्रेस और भाजपा विरोधी राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों को यह समझना होगा कि समाजवादी राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले दलों के नेतृत्व वाले तीसरे मोर्चे और दलितवादी राजनीतिक पृष्ठभूमि वाली बसपा के नेतृत्व वाले चौथे मोर्चे की राजनीतिक विश्वसनीयता भारतीय जनमानस में लगभग समाप्त हो चुकी है। 

इसलिए उन्हें भाजपा नीत एनडीए या कांग्रेस नीत इंडिया गठबंधन के नेतृत्व वाले राजनीतिक मोर्चे में ही रहना होगा। अन्यथा उनका कोई राजनीतिक भविष्य नहीं बचेगा। तमिलनाडु में द्रमुक और अन्नाद्रमुक, आंध्रप्रदेश में टीडीपी और वाईएसआर कांग्रेस में से कोई एक ही एनडीए या  इंडिया गठबंधन में रहेगा। वहीं, उड़ीसा की बीजेडी ने एनडीए या यूपीए के साथ नहीं जाने का फैसला करके खुद को राजनीतिक तौर पर अप्रासंगिक बना दिया।

उधर, कर्नाटक में जेडीएस को भाजपा की शरण लेनी पड़ी। चाहे केरल की वाम मोर्चा सरकार हो या पश्चिम बंगाल की टीएमसी सरकार, ये तभी तक महफूज हैं, जबतक किसी गठबंधन के साथ हैं। पंजाब में शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा का साथ छोड़कर और बसपा का साथ लेकर अपना राजनीतिक अहित कर लिया। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजरात आदि ऐसे राज्य हैं, जहां क्षेत्रीय दल कभी प्रभावी नहीं रहे। हां, जनता पार्टी और जनता दल की मजबूत उपस्थिति यहां अवश्य रही।

दिलचस्प बात तो यह है कि कभी तीसरे मोर्चे या चौथे मोर्चे में शामिल रहे क्षेत्रीय दलों की आपसी प्रतिस्पर्धा से ही भाजपा नीत एनडीए या कांग्रेस नीत इंडिया गठबंधन को भी राजनीतिक ऑक्सीजन मिलता आया है। क्योंकि बिहार में जदयू या राजद और यूपी में सपा और बसपा अपने अपने राजनीतिक हितों के लिए एक गठबंधन में उसी प्रकार से नहीं रह सकते हैं, जिस तरह से भाजपा या कांग्रेस कभी एक दूसरे के साथ खुले तौर पर नहीं आ सकती हैं। 

देखा जाए तो राष्ट्रीय दलों और क्षेत्रीय दलों की इन पारस्परिक मजबूरियों को भी सभी दल भलीभांति समझते हैं और उसी के मुताल्लिक अपनी रणनीति बनाते हैं। इसलिए यहां सवाल उठ रहा है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में कांग्रेस विरोध के चलते भाजपा के हाथों अपनी सत्ता गंवा चुकी कथित तीसरे मोर्चे की आप और उसके सहयोगी दल निकट भविष्य में अब कौन सा राजनीतिक तीर मार लेंगे, देखना दिलचस्प होगा। 

सच कहूं तो इन क्षेत्रीय दलों के पास कांग्रेस या भाजपा की शरण में जाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है, अन्यथा जो इनके संसर्ग में रहेगा, वह उन्हें खत्म कर देगा। हां, ये लोग बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू आलाकमान नीतीश कुमार से यह बखूबी सीख सकते हैं कि कांग्रेस या भाजपा से कितना संतुलन भरा रिश्ता रखना है, ताकि उनकी राजनीतिक अहमियत राज्य विशेष और अखिल भारतीय स्तर दोनों जगह पर समान रूप से बनी रहे। वहीं, इंडिया गठबंधन को भी राजनीतिक या व्यक्तिगत हठ प्रदर्शित करने की जगह एनडीए जैसे सूझबूझ भरे और सामुहिक  फैसले लेने की जरूरत है, अन्यथा वह उसका राष्ट्रीय या क्षेत्रीय विकल्प बनने का सपना छोड़ दे।

- कमलेश पांडेय




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